“रूस और यूक्रेन का तनाव अगर बहुत लंबे समय तक चलता रहा तो दुनिया के बहुत से मुल्कों में आम लोगों के जीवन जीने की लागत बहुत महँगी हो जाएगी।”
नई दिल्ली: २४ फ़रवरी। रूस और यूक्रेन की तनातनी अब युद्ध में तब्दील हो गई है। गुरूवार शाम तक क़रीब ४० यूक्रेनी सैनिक, ५० रूसी सैनिक और ६ फाइटर जेट तबाह होने की खबर थी। रूस और यूक्रेन के बीच का तनाव बहुत लंबे समय तक चलता रहा तो इसका असर रूस और यूक्रेन सहित दुनिया के हर एक इलाके पर पड़ेगा। लेकिन इसका सबसे अधिक खतरनाक परिणाम यूक्रेन को झेलना पड़ेगा।
यूक्रेन पर यह कहर बनकर टूटेगा। दरअसल, शीत युद्ध समाप्त होने के ४० साल बाद एक बार फिर पूरा विश्व दो धड़ों में बंट गया है। यूक्रेन की स्थापना १९९१ में हुई थी। तब से लेकर अब तक उसकी अर्थव्यवस्था की जीडीपी ने बढ़ोतरी हासिल करने की बजाय २०% की कमतरी हासिल की है। उसकी अर्थव्यवस्था आर्थिक वृद्धि के मामले में कदम आगे रखने की बजाय कदम पीछे रख रही है। वह नेगेटिव ग्रोथ से जुड़ने वाला दुनिया की ५ सबसे बुरी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है।
उधर, कई देश रूस पर प्रतिबंध के एलान कर चुके हैं, क्योंकि उसने अलगाववादियों का समर्थन करते हुए यूक्रेन के दो राज्यों डोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र करार दिया था। ऐसे में इन प्रतिबंधों से क्या असर पड़ेगा, यह देखना बाकी है, लेकिन रूस सिर्फ तेल और गैस सेक्टर में अहमियत नहीं रखता है, बल्कि अन्य कमोडिटीज और मिनरल्स के मामले में भी बड़ा खिलाड़ी है। ऐसे में इन चीजों की आपूर्ति घटने और दामों में इजाफा होने का अनुमान लगाया जा रहा है। इस युद्ध की वजह से कोरोना महामारी से जूझ रही पूरी दुनिया में महंगाई दशकों के उच्च स्तर पर पहुंच सकती है। संकट के इस दौर में हम आपको बता रहे हैं कि दुनिया के कौन-कौन से देश रूस और यूक्रेन के साथ हैं। वहीं, इस मामले में भारत और पाकिस्तान का क्या रुख है?
अगर रूस की बात करते हैं तो क्यूबा सबसे पहले उसका समर्थन करेगा। दरअसल, क्यूबा ने रूस के सीमावर्ती क्षेत्रों में नाटो के विस्तार को लेकर अमेरिका की आलोचना की थी और वैश्विक शांति के लिए कूटनीतिक तरीके से इस मसले का हल निकालने का आह्वान किया था। इसके अलावा रूस को चीन का समर्थन जरूर मिलेगा। चीन पहले ही एलान कर चुका है कि नाटो यूक्रेन में मनमानी कर रहा है। दरअसल, पश्चिमी देशों ने जब चीन के विरोध में कदम उठाए थे, तब रूस ने चीन का समर्थन किया था। हकीकत यह है कि रूस और चीन दोनों ने ही सेना से लेकर अंतरिक्ष तक अलग-अलग क्षेत्रों में कई साझेदारी कर रखी हैं।
इसके अलावा कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहे अर्मेनिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और बेलारूस भी रूस का समर्थन करेंगे, क्योंकि उन्होंने छह देशों के सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका मतलब यह है कि अगर रूस पर हमला होता है तो ये देश इसे खुद पर भी हमला मानेंगे। इनके अलावा अजरबेजान भी रूस की मदद के लिए आगे आ सकता है। अगर हम मिडिल ईस्ट का रुख करते हैं तो ईरान रूस का साथ दे सकता है। दरअसल, न्यूक्लियर डील असफल होने के बाद से रूस लगातार ईरान को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा था। इसके अलावा सीरिया से युद्ध के दौरान रूस ने ही ईरान को हथियार मुहैया कराए थे। वहीं, युद्ध की स्थिति में उत्तरी कोरिया भी रूस का साथ दे सकता है।
दरअसल, उत्तरी कोरिया ने पेनिनसुला में जब मिसाइल लॉन्च की थीं, उस वक्त अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगाने का एलान किया तो रूस और चीन दोनों ने विरोध जताया था। वहीं, पाकिस्तान भी रूस का समर्थन कर सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इस वक्त रूस के दौरे पर हैं।
अब हम उन देशों के बारे में जानते हैं, जो विश्व युद्ध के हालात बनने पर यूक्रेन का साथ दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में नाटो में शामिल यूरोपियन देश बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लग्जमबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और अमेरिका पूरी तरह यूक्रेन का समर्थन करेंगे। इनमें अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन के सबसे बड़े समर्थक साबित हो सकते हैं। जर्मनी और फ्रांस ने हाल ही में मॉस्को का दौरा करके विवाद शांत करने की कोशिश की थी, लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जब यूक्रेन के दो राज्यों को स्वतंत्र घोषित किया और वहां सेना भेजने का एलान किया, तब जर्मनी ने नॉर्ड स्ट्रीम २ पाइपलाइन की इजाजत को रोक दिया। वहीं, अन्य पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगा दिए। इसके अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा भी यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं। साथ ही, उन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाने का एलान भी किया।
रूस-यूक्रेन संकट पर तटस्थ की भूमिका में मौजूद हैं। इस मसले पर भारत अकेला ऐसा देश है, जिसने तटस्थ रुख अपना रखा है। दरअसल, अमेरिका और रूस दोनों देशों से भारत के रिश्ते काफी अच्छे हैं। भारत की जीडीपी का ४० फीसदी हिस्सा फॉरेन ट्रेड से आता है। १९९० के दौर में यह आंकड़ा करीब १५ फीसदी था। भारत का अधिकतर कारोबार अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों के अलावा मिडिल ईस्ट से होता है। भारत हर साल पश्चिमी देशों से करीब ३५०-४०० बिलियन डॉलर का कारोबार करता है। वहीं, रूस और भारत के बीच भी १० से १२ बिलियन डॉलर का कारोबार है।
जबकि यूक्रेन पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा है। वहां महंगाई दर बहुत ज्यादा है। रूस से सप्लाई होने वाले गैस का कर्ज बहुत ज्यादा है। तेल के लिए वह पूरी तरह से रूस पर निर्भर देश है। यह एक ऐसा देश है जिसे रूसी समर्थक और रूस विरोधी भावनाओं की प्रबलता ने देश को भीतर से बर्बाद करने का काम किया है। लोगों के बीच रूस और अमेरिका को लेकर मौजूद ध्रुवीकरण ने बहुत अधिक जाहर घोला है। अगर ऐसा देश युद्ध की भेंट चढ़ता है तो पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा। दुनिया के सामने मानवता को लेकर ढेर सारी चुनौतियां हैं, दुनिया को चाहिए कि किसी भी तरह से वह यूक्रेन जैसे देश को बर्बाद होने से रोक ले।
रूस पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं लेकिन अगर दुनिया इससे भी अधिक कठोर प्रतिबंध लगाती हैं तो रूस पर तो इसका असर पड़ेगा ही पड़ेगा लेकिन दुनिया के दूसरे मुल्कों पर भी इसका खतरनाक असर पड़ेगा। रूस, वेनेजुएला और ईरान की अर्थव्यवस्था की तरह नहीं है बल्कि ऊर्जा संसाधनों के मामले में दुनिया की सशक्त अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यूरोप के मुल्कों में रूस की तरफ से जितना निर्यात किया जाता है उससे कम आयात किया जाता है। यानी असर यूरोप और अधिक पड़ेगा और रूस पर कम।
रूस दुनिया का सबसे बड़ा दूसरा तेल निर्यातक और तीसरा तेल उत्पादक देश है। रूस से हर रोज तकरीबन 50 लाख बैरल तेल का निर्यात होता है। इसमें से ४८% खरीद यूरोप की होती है। तो तकरीबन ४२% खरीद एशिया की होती है। रूस और यूक्रेन की तनातनी की वजह से पूरी दुनिया में कच्चे तेल की कीमत $१०० प्रति डॉलर बैरल तक पहुंच गई है। ओपेक के देशों ने पहले ही समझौता किया है कि वह अधिक कच्चे तेल का उत्पादन नहीं करेंगे।
मतलब कीमतें और अधिक बढ़ने वाली हैं। भारत जैसा देश अपनी जरूरतों का तकरीबन ८०% कच्चा तेल दूसरे देशों से आयात करता है। यानी रूस और यूक्रेन की तनातनी का प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था में रुपए के गिरते मूल्य पर कहर ढाने के लिए आगे बढ़ रहा है। जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो पेट्रोल डीजल रसोई गैस बिजली उर्वरक सब महंगा होगा। जब एनर्जी सेक्टर महंगा होगा तो जीवन जीने की लागत महंगी होगी। यानी अमेरिका के लालच से पैदा हुआ रूस और यूक्रेन का संकट भारत के आम लोगों पर कहर बनकर टूट सकता है। इसके अलावा रूस एल्युमीनियम और निकेल जैसे महत्वपूर्ण खनिज संसाधनों का महत्वपूर्ण उत्पादक देश है।
दुनिया के अनाज की सप्लाई में रूस और यूक्रेन महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। काला सागर की सीमा रूस और यूक्रेन से लगती है। इसी काला सागर से होकर युरोप के मुल्कों में अनाज की सप्लाई होती है। अगर रूस और यूक्रेन की तनातनी बढ़ती जाती है तो इसका असर पूरी दुनिया के अनाज की सप्लाई पर पड़ेगा। अनाज की कीमतें महंगी होंगीं।
अगर आर्थिक संबंधों की बात करें तो रूस और भारत के आर्थिक संबंध बहुत गहरे हैं। रूस भारत का सबसे बड़ा हथियार सप्लायर देश है। २०२० में तकरीबन ५०% हथियार भारत के रूस से आए थे। पिछले 3 सालों में भारत और रूस के बीच रक्षा व्यापार समझौता तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का हुआ है। भारत चाहता है कि रूस के साथ व्यापार संबंध बढ़कर २ लाख करोड़ रुपए से अधिक का पहुंच जाए। ऐसे में भारत आसानी से रूस के खिलाफ नहीं जा सकता।
जहां तक रूस पर लगे प्रतिबंधों की बात है तो आर्थिक जानकारों का कहना है कि यूक्रेन के पूर्वी हिस्से को स्वतंत्र देश की मान्यता देने के बाद यह अपेक्षा की जा रही थी कि अमेरिका और यूरोप के सशक्त देश रूस पर बहुत अधिक कड़े प्रतिबंध लगाएंगे। लेकिन आर्थिक प्रतिबंधों की प्रकृति देखकर ऐसा लगता है कि बहुत ने कड़े प्रतिबंध नहीं हैं, जिनकी आबोहवा पूरी दुनिया रूस पर बना रही थी। पूरे रूस पर प्रतिबंध लगने की बजाए रूस की उन कंपनियों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया गया है जिनकी नजदीकियां राष्ट्रपति पुतिन के साथ गहरी मानी जाती हैं। जो राष्ट्रपति पुतिन के नेता और कारोबारी गठबंधन का हिस्सा है। रूस के बड़े नेताओं की आवाजाही और कारोबार पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया गया है। रूस के कुछ बैंकों पर प्रतिबंध लगाया गया है।
इन प्रतिबंधों पर आर्थिक जानकारों का कहना है कि रूस पर इसका असर तो पड़ेगा लेकिन बहुत गहरा असर नहीं पड़ेगा। रूस इस संभावना के साथ बहुत पहले से जीता आया है कि उसके ऊपर आर्थिक प्रतिबंध लग सकते हैं। इसलिए उसने अपने आप को इसके लिए तैयार भी कर के रखा है। उसके पास अच्छा खासा फॉरेक्स रिजर्व है। यानी अच्छा खासा विदेशी मुद्रा का भंडार है। उसने अपनी मुद्रा को डॉलर के मुकाबले मजबूत करने की भरपूर कोशिश की है। इस वजह से रूस को बहुत गहरा असर पड़ने की संभावना नहीं दिखाई दे रही। हाल फिलहाल की स्थिति यह है कि प्रतिबंध लगने के बाद रूस के स्टॉक मार्केट गिरने के बजाय बढ़ गई। सबसे बड़ी बात यह कि यूरोप के ऑस्ट्रिया और इटली जैसे देश के बैंकों का बहुत बड़ा पैसा रूस में लगा हुआ है। इसलिए अमेरिका के दबाव के बावजूद भी यूरोप के देश रूस को अंतर्राष्ट्रीय बैंक की व्यवस्था से काटने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।
इन प्रतिबंधों में सबसे अधिक चर्चा नॉर्ड स्ट्रीम पर रही। अब बात चली है तो बात को ठीक से समझने के लिए नॉर्ड स्ट्रीम की भी चर्चा कर लेते है। नॉर्ड स्ट्रीम, समुद्र के नीचे सबसे लंबी एक निर्यात गैस पाइपलाइन परियोजना है, जो बाल्टिक सागर के रास्ते होकर रूस से यूरोप तक गैस ले जाती है। इस परियोजना को शुरू हुए तकरीबन ७-८ साल हो गए। यूरोप की प्राकृतिक गैस की जरूरतों को रूस पूरा करता है। लेकिन यह जरूरतें यूक्रेन ओर पोलैंड के जरिए पूरी होती हैं। यूक्रेन और पोलैंड की ट्रांजिशन फीस के तौर पर अच्छी खासी कमाई होती है। अगर नॉर्ड स्ट्रीम की शुरुआत होती है तो यूक्रेन की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को और अधिक धक्का पहुंचेगा।
अमेरिका को लगता है कि अगर नॉर्ड स्ट्रीम बन जाता है तो यूरोप के मुल्कों की निर्भरता रूस पर बहुत अधिक बढ़ जाएगी। अगर नॉर्ड स्ट्रीम नहीं बनता है तो प्राकृतिक गैस पहुंचाने का जरिया यूक्रेन रहेगा। यूक्रेन की वजह से अमेरिका का हस्तक्षेप यूरोप के मुल्कों पर रहेगा। रूस के यूक्रेन के पूर्वी इलाके के प्रांतों के लिए उठाए गए कदम की वजह से हाल फिलहाल नॉर्ड स्ट्रीम परियोजना को रोक दिया गया है।
अंतरराष्ट्रीय जानकारों का कहना है कि अमेरिका की हथियार लॉबी को छोड़कर दुनिया के तकरीबन सभी मुल्क यह चाहते हैं कि यूक्रेन और रूस के बीच की तनातनी शांति में बदल जाए। वह नहीं चाहते कि दुनिया एक ध्रुवीय या द्वि ध्रुवीय व्यवस्था में बदल जाए। यह पूरी तरह से साफ है कि सदी की चुनौतियां जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिक तंत्र में हो रहे परिवर्तन, महामारी और सामाजिक न्याय से जुड़ी हुई चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों पर काम करने की बजाय युद्ध में शामिल होना दुनिया को अंधकार में धकेलने जैसा होगा।
– डॉ. म. शाहिद सिद्दीक़ी ,
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