ईरान-सऊदी अरब और चीन की तिकड़ी से खलबली! विश्व राजनीति पर कितना असर, किसे मिलेगा फ़ायदा, किसका नुक़सान?

दुनिया के दो बड़े इस्लामिक मुल्क ईरान और सऊदी अरब अपनी बरसों की दुश्‍मनी को भुलाकर अब अपने राजयनयिक रिश्तों को बहाल कर रहे हैं। इन दोनों देशों के प्रतिनिधियों की चीन में बैठक हुई थी, जहां सऊदी-ईरान एक दूजे के यहां एंबेसी खोलने पर सहमत हुए थे। इस बैठक के ठीक एक हफ्ते बाद सऊदी अरब के किंग सलमान बिन अब्दुलअजीज अल सऊद ने ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी को रियाद आने का न्यौता दिया है।

ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी के राजनीतिक मामलों के डिप्टी चीफ ऑफ स्टाफ मोहम्मद जमशीदी ने एक ट्वीट में इस घटनाक्रम की पुष्टि की और कहा कि सऊदी अरब के किंग ने एक पत्र के जरिए राष्ट्रपति को निमंत्रण भेजा है। चीन के CGTN की रिपोर्ट के मुताबिक, जमशेदी ने कहा कि सऊदी किंग ने अपने पत्र में कहा कि उन्होंने द्विपक्षीय संबंधों के सामान्यीकरण पर भाइचारे वाले मुल्कों के बीच हालिया समझौते का स्वागत किया है. अब सऊदी किंग चाहते हैं कि ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी को रियाद की यात्रा पर आएं।

लेकिन, दुनिया जानना चाहती है कि क्या हैं इस समझौते के मायने और क्यों चीन इस क्षेत्र में अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है?

दरअसल, बीजिंग में हुई गुप्त वार्ता के बाद अचानक इस सौदे के अस्तित्व में आने की खबर ने न केवल पश्चिम एशिया बल्कि पूरी दुनिया को चौंका दिया है। दोनों देशों के बीच हुए समझौते के बाद ईरान और सऊदी अरब के बीच वर्षों पुराने कूटनीतिक संकट पर पूर्ण विराम लगता दिख रहा है। दोनों देशों के बीच किसी भी तरह का संबंध बीते सात सालों से नहीं था और ऐसे में अचानक से दोनों देशों के बीच संबंध स्थापित करने को लेकर समझौता होना अपने आप में अभूतपूर्व है। ईरान और सऊदी अरब के बीच चीन की मध्यस्थता के बाद शुक्रवार को एक ऐतिहासिक समझौता देखने को मिला।

इस समझौते के मुताबिक दोनों देशों को अगले दो महीने के अंदर अपने दूतावास खोलने होंगे और साथ ही दोनों देशों के विदेश मंत्री इस समझौते के सभी बिंदुओं पर चर्चा करने और इस पर अपनी अंतिम सहमति देने के लिए जल्द ही एक शिखर सम्मेलन करेंगे। इसके अलावा इस डील में ईरान द्वारा यमन में किए जा रहे छद्म युद्ध पर भी सहमति बनी। ईरान ने सऊदी अरब पर किसी तरह का हमला न करने पर अपनी सहमति जताई जिसमें यमन में चल रहे युद्ध में सऊदी अरब समर्थित सेनाओं पर हूती विद्रोहियों द्वारा हमला न करवाना भी शामिल है।

यह डील बीजिंग में चार दिनों तक चल रही गुप्त रूप से वार्ता के बाद अस्तित्व में आई है। यह समझौता चीन के विदेश मामलों के प्रमुख व पूर्व विदेश मंत्री वांग यी, ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव अली शामखानी और सऊदी अरब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल ऐबान की मौजूदगी में हुआ।

गैरतलब है कि सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक संबंध 2016 से ही खत्म हो गए थे। इन दोनों के बीच संबंध खराब होने तब शुरू हुए थे जब तेहरान स्थित सऊदी दूतावास और मशहद स्थित उसके वाणिज्य दूतावास पर ईरान के नागरिकों ने तोड़फोड़ कर उसे आग के हवाले कर दिया था। दूतावास पर हमले के बाद रियाद ने तेहरान से अपने संबंध पूर्ण रूप से खत्म कर लिए थे। पर इन दोनों के संबंध खराब होने के घटनाक्रम की शुरुआत पर नजर डालें तो यह हमें अरब स्प्रिंग की ओर ले जाती है।

अगर हम अरब स्प्रिंग के इतिहास पर नजर डालें तो हम देख सकते हैं कि 2011 के बाद ईरान और सऊदी के संबंध सुधरने के बजाय बिगड़ते चले गए। 2011 में जब पश्चिमी एशिया में अरब स्प्रिंग के दौरान बहरीन में सत्ता को हटाने के लिए प्रदर्शन हो रहे थे तब सऊदी अरब ने ईरान को इन प्रदर्शनों को और भड़काने का आरोप लगाया। हालांकि ईरान ने बहरीन में हो रहे प्रदर्शनों में उसकी संलिप्तता से साफ तौर पर इनकार कर दिया था।

इसके अलावा 2015 में जब यमन में गृहयुद्ध चल रहा था, तब माना जाता है कि सऊदी अरब ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यमनी सरकार का समर्थन किया और यमनी सरकार को वहां के विद्रोही समूहों, खासकर हूती समूह से लड़ने में मदद की। यहाँ ईरान ने हूती समूह को अपना समर्थन दे उसे हथियार और सभी प्रकार के सैन्य उपकरणों की आपूर्ति की और हूती समूह की मदद से सऊदी अरब के खिलाफ छद्म युद्ध लड़ा, जिस कारण दोनों देशों के बीच दुश्मनी गहरी होती चली गई।

इन सबके अलावा 2016 में सऊदी अरब ने एक प्रमुख शिया धर्मगुरु निम्र अल-निम्र समेत 47 ईरानी लोगों को आतंकवाद के आरोप में फांसी की सजा दी थी। आतंकवाद के आरोप में इन ईरानी लोगों को फांसी के फंदे पर चढ़ाने के बाद ही ईरानी नागरिकों ने सऊदी दूतावास पर हंगामा किया था। इस घटना के बाद सऊदी ने ईरान के साथ अपने सारे संबंध खत्म कर लिए थे।

दोनो देशों के द्वारा छद्म युद्ध लड़ने के अलावा और भी कई ऐसी घटनाएं होती रहीं जो संबंधों को और कटु करती चली गईं। 2019 में हूती समूह द्वारा सऊदी अरब की सऊदी अरामको कंपनी पर ड्रोन से हमला करने के बाद सऊदी अरब ईरान के खिलाफ और मुखर हो गया। इस घटना के बाद दोनों देश युद्ध के कगार पर पहुँच गए थे। सऊदी अरब ने हूती समूह द्वारा किए गए हमले के पीछे ईरान का हाथ बताया था।

हालाँकि, इस समझौते के दूरगामी परिणामों पर बात करना अभी जल्दबाजी होगी।  लेकिन, अगर यह समझौता वास्तविकता में धरातल पर अस्तित्व में आ जाता है तो निश्चित रूप से हम सभी को इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकते हैं। जानकारों का मानना है कि यह समझौता पिछले तीन साल से इराक, ओमान और अब चीन जैसे देशों की मध्यस्थता के बाद अस्तित्व में आया है और इतनी मेहनत के बाद आए इस समझौते के दूरगामी परिणामों से कोई इनकार नहीं कर सकता है।

इस समझौते से जहां पश्चिम एशिया में शांति आने की उम्मीद है, वहीं इसके परिणाम वैश्विक स्तर पर भी अलग-अलग स्तरों पर हमें देखने को मिलेंगे। अगर हम इसके क्षेत्रीय स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों की बात करें तो सबसे पहले तो यह समझौता दोनों देशों के बीच चल रही शत्रुता को खत्म करने की ओर काम करेगा जिससे इस क्षेत्र में जारी असुरक्षा को कम करेगा। साथ ही यह दोनों देशों द्वारा लड़े जा रहे छद्म युद्ध को भी खत्म करने में कार्य करेगा। यमन, सीरिया, इराक और लीबिया में चल रहे युद्ध में दोनों देश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं और ऐसे में दोनों देशों के बीच समझौता होना बज़ाहिर रूप से इस दिशा में दोनों देशों को कार्य करने पर मजबूर करेगा। जिससे क्षेत्र में चल रहे युद्धों में कमी देखने को मिलने की उम्मीद है।

गौरतलब हो कि 2019 में सऊदी अरामको पर हूती समूहों द्वारा ईरान निर्मित ड्रोन से हमला किया गया था जिस कारण उसके तेल उत्पादन पर बुरी तरह प्रभाव पड़ा था। इस हमले के कारण दुनिया के तेल उत्पादन का 6% हिस्सा प्रभावित हो गया था। जानकारों का मानना है कि 2019 के इस हमले ने रियाद को सिखाया कि अमेरिका ईरान से उनकी रक्षा नहीं कर सकता। ईरान पर चीन के अत्यधिक उत्तोलन और क्षेत्रीय स्थिरता में उसकी रुचि को देखते हुए, रियाद को उम्मीद है कि यह सौदा उन्हें ईरानी आक्रामकता के खिलाफ एक चीनी ढाल प्रदान करेगा।

इसके अलावा दरअसल बीते कुछ समय में अमेरिका ने पश्चिमी एशिया के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को कम करने की कोशिश की है जिस कारण पश्चिमी एशिया के देश अपनी विदेश नीति को बदलने व उसपर सोचने पर विवश हुए हैं। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और जो बाइडेन के बीच संबंध का बेहतर न होना और अमेरिका की इस क्षेत्र में दिलचस्पी का कम होना जैसी चीजों ने रियाद को अपनी विदेश नीति में विविधता लाने पर मजबूर किया है। रियाद अब अपने सैन्य व सुरक्षा के मामलों का बोझ केवल अमेरिका के भरोसे न छोड़ने के बजाए उसका विविधीकरण करना चाहता है जिस कारण वह रूस और चीन की ओर देख रहा है। इसी कड़ी में उसने चीन की मध्यस्तता में ईरान के साथ अपने संबंध सुधारे हैं।

जहां ईरान परमाणु समझौते (Joint Comprehensive Plan of Action) से अमेरिका द्वारा एकतरफा रूप से बाहर आने के बाद से ईरान बहुत हद तक अलग-थलग पड़ गया था और साथ ही इस कारण से वह आर्थिक व राजनीतिक रूप से बहुत हद तक अपमानित महसूस कर रहा था। इसके अलावा बीते कुछ महीनों से आंतरिक रूप से प्रदर्शनों का सामना भी कर रहा था, उसके लिए यह डील होना हर ओर से फायदे का सौदा है। जहां यह डील उसके लिए आर्थिक और सुरक्षा के क्षेत्र में नए आयामों को खोल देगी वहीं दूसरी ओर इस कारण देश में फैली आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता को काबू करने में भी कामयाबी मिलेगी। इसके अलावा यह समझौते बरसों से अलग-थलग पड़े ईरान के वनवास को खत्म करेगी।

जहां सऊदी अरब और ईरान के इस डील में अपने-अपने फायदे हैं, वहीं दूसरी ओर इस समझौते में अगर किसी देश को सबसे बड़ा नुकसान होता दिख रहा है तो वह है इजरायल।

दरअसल, इजराइल एक तरफ जहां ईरान को पूरी तरह से अलग-थलग करने की कोशिश कर रहा है वहीं सऊदी अरब को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा है। और अब दोनों देश के बीच जो समझौता अस्तित्व में आया है वह इजराइल के लिए किसी भी रूप से बेहतर नहीं है। ईरान और सऊदी का समझौता होने पर जहां अमेरिका और इजराइल की ईरान को अलग-थलग करने की नीति कमजोर पड़ जाएगी वहीं ईरान के लिए नए आर्थिक दरवाजे भी खुल जाएंगे। जो इजराइल के लिए किस भी तरह से बेहतर नहीं होगा।

दरअसल ट्रम्प प्रशासन द्वारा अब्राहम अकॉर्ड के अस्तित्व में आने के बाद जब संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इजराइल से संबंध स्थापित कर लिए थे तब ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि अमेरिका जल्द ही सऊदी अरब और इजराइल के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित कराने में सफल हो जाएगा। और उसके ऐसा करने से कई फायदे होंगे, एक तो अमेरिका का इस क्षेत्र पर प्रभुत्व बना रहेगा और दूसरा इजराइल और सऊदी अरब एक साथ मिलकर पश्चिमी एशिया का भविष्य तय करेंगे और तीसरा इस कारण ईरान पूर्ण रूप से इस क्षेत्र में अलग-थलग पड़ जाएगा। पर हालिया घटनाक्रम अमेरिका और इजराइल की इस नीति पर पानी फेरता हुआ दिख रहा है।

इसके अलावा इस डील के अस्तित्व में आने पर अमेरिका के द्वारा ईरान पर लगाए गए आर्थिक और विभिन्न तरह के प्रतिबंधों को भी तगड़ा झटका लगेगा। जहां पहले से ही रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण ईरान और रूस के संबंध एक नई दिशा की ओर जा रहे हैं वहीं ईरान और चीन के संबंध आर्थिक से लेकर सैन्य व और भी विभिन्न आयामों की ओर जा रहे हैं। इन दोनों कारणों के अलावा सऊदी अरब से संबंध बेहतर होने से ईरान की वैश्विक स्तर पर जो अलग-थलग होने की समस्या थी वो खत्म भले न हो पर कमजोर जरूर पड़ जाएगी।

इस समझौते के समय और इसमें चीन के हस्तक्षेप दोनों ने सभी को चौंका दिया। दरअसल यह डील ऐसे समय पर अस्तित्व में आई है जब अमेरिका, सऊदी अरब और इजराइल के बीच राजनयिक संबंधों को बहाल करने पर लगा हुआ है और इसके अलावा यह पहली बार है जब बीजिंग ने पश्चिमी एशिया की कूटनीति में इतनी ताकत से हस्तक्षेप किया है। पर सवाल यह उठता है इस डील से चीन को क्या मिलेगा और वह इस डील को लेकर इतना उत्साहित क्यों है?

इस समझौते में चीन की भूमिका से साफ़ हो चुका है कि चीन इस क्षेत्र में खुद को एक बड़ी ताकत के रूप में देखने की कोशिश कर रहा है और ऐसे में इस क्षेत्र की दो बड़ी ताकतों, जो एक-दूसरे की दुश्मन थीं, के बीच समझौता कराना उसके लिए किसी जीत से कम नहीं है। दोनों देशों के बीच समझौता होने पर चीन का आर्थिक लक्ष्य और बेहतर ढंग से सधता हुआ दिख रहा है। आसान शब्दों में कहा जाए तो चीन इस क्षेत्र से ऊर्जा के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए पश्चिमी एशिया में स्थिरता चाहता है। और अगर ऐसे में इस क्षेत्र के दो प्रमुख शक्तियों के बीच स्थिरता होगी तो उसे अपने आर्थिक फायदे भुनाने में किसी तरह की कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसी कारण इन प्रमुख ऊर्जा उत्पादकों के बीच तनाव कम करना उसके अपने उद्देश्यों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

इसके अलावा पश्चिम एशिया में अमेरिका की दिलचस्पी घटने के बाद यहां जो जगह खाली हुई है, उसे चीन भरने की कोशिश कर रहा है। अत्यधिक रूप से ध्रुवीकृत पश्चिम एशिया में चीन एक तटस्थ मध्यस्थ बनने की कोशिश कर रहा है। चीन इस क्षेत्र में अपनी सक्रियता बढ़ाता हुआ दिख रहा है और वह अमेरिका की पश्चिमी एशिया से संबंधित हालिया नीति का फायदा उठा कर उसकी जगह पर अपना अधिकार बढ़ाने की ओर अग्रसर है। आने वाले समय में उसके हित दिन प्रतिदिन बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। खाड़ी देशों से हालिया समय में उसके व्यापार के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह 130 बिलियन अमेरिकी डॉलर दिखाता है और यह आने वाले समय में अत्याधिक तेज गति से बढ़ता दिख रहा है। इसके अलावा चीन सबसे ज्यादा पेट्रोलियम उत्पादों का आयात खाड़ी देशों से करता है।

पश्चिम एशिया में अमेरिका की घटती दिलचस्पी या मजबूरी के बाद बीजिंग द्वारा की गई यह डील उसकी कूटनीति का पहला बड़ा कूटनीतिक उदाहरण है। अगर चीन वास्तव में दोनों देशों के संबंधों को सुधारने में सफल हो जाता है तो आने वाले समय में उसे इस क्षेत्र में मजबूती से अपनी बात रखने में कोई दिक्कत नहीं होगी और वह इस क्षेत्र में खुद को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में स्थापित कर पाएगा।

इस डील को जानकार चीन की कूटनीति की जीत और एकध्रुवीय विश्व का खात्मा भी बता रहे हैं और उनका मानना है की अब चीन से आने वाले समय में इस तरह की कूटनीति देखने को मिलती रहेगी। गौर करने वाली बात यहाँ यह है कि जिस दिन इस समझौते पर हस्ताक्षर हो रहे थे, उसी दिन शी चिनफिंग अपने तीसरे कार्यकाल में प्रवेश कर रहे थे। चीन ने उसी दिन यह समझौते की घोषणा कर यह ज़ाहिर कर दिया कि वह इस क्षेत्र में एक स्थायी शक्ति के रूप में कार्य करने के लिए उभर चुका है।

इस समझौते में ईरान, सऊदी अरब और चीन के अलावा इस क्षेत्र के देशों के लिए अपने अपने मायने हैं। पर सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या जिन चीजों को केंद्र में रख कर यह समझौता हुआ है वह धरातल पर उसी रूप में आ पाएगा? क्या यह समझौता युद्ध से बुरी तरह प्रभावित पश्चिमी एशिया में शांति ला पाएगा? सीरिया से लेकर यमन व लेबनान तक यह दोनों देश एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं। इन युद्धों के अलावा भी दोनों देशों के बीच राजनीतिक, धार्मिक के अलावा और भी कई स्तरों पर मतभेद हैं। इन सब मतभेदों पर दोनों देश किस तरह से काम करते हैं इसे आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा।

-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी, Follow via Twitter @shahidsiddiqui

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