रवांडा नरसंहार के २८ साल बाद भी नहीं भरे ज़ख़्म, याद कर रवांडा की उच्चायुक्त हुईं भावुक

   “मेरे प्यारे साथियों, आज आप  रवांडा की नरसंहार की कहानी सुन रहे हैं वो मैंने कहीं किताब से नहीं पढ़ी है, नाहीं किसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म को देखकर बयान कर रही हूँ। ये कहानी मेरी है, मैंने अपने आँखों से लोगों को कत्ल होते हुए देखा है। क्योंकि मैं रवांडा में ही पैदा हुई और वहीं मेरी परवरिश भी हुई। और इसके साथ-साथ मैं उन खुशनसीब में से हूँ जो नरसंहार के दौरान बच गई। लेकिन, मेरे पिता नहीं बच पाए, मेरे चार भाई-बहन भी नहीं बच पाए। जब मेरे पिता नरसंहार के शिकार हुए तो उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ़ ५५ साल थी। उस नरसंहार में मैंने पिता ही नहीं, बल्कि अपने सभी चाचा और चाचियों समेत उनके बच्चों को भी खो दिया। लेकिन, मैं ख़ुद आज यहाँ हूँ।”

ये कहानी बयान करने वाला कोई और नहीं बल्कि भारत में रवांडा की उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन थीं। 

रवांडा जनसंहार की २८वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन बोल रहीं थीं। इस समारोह को इंडिया-अफ्रीका ट्रेड काउंसिल ने आयोजित किया था। रवांडा जनसंहार में मारे गए निर्दोष लोगों को श्रृद्धांजलि देने के लिए २८वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली में आयोजित इस समारोह में क़रीब २० से ज़्यादा अफ्रीकी देशों के राजदूत शामिल हुए। इंडिया-अफ्रीका ट्रेड काउंसिल के अध्यक्ष आसिफ़ इक़बाल ने इस मौक़े पर बोलते हुए कहा,   “इस जनसंहार में मारे गए निर्दोष लोगों को हम भूल नहीं सकते। साथ ही उन्होंने ने आगे कहा कि ऐसे प्रोग्राम के माध्यम से हम कोशिश करते हैं कि हमें याद रहे कि इसमें कितने मासूम की जान गई और ऐसी घटना विश्व में नहीं दोहराई जाए।”

इस मौक़े पर भारत में रवांडा की उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन ने विस्तार से रवांडा नरसंहार के बारे बताते हुए भावुक भी हुईं। हालाँकि अपने परिवार को खोने के बाद भी उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन ख़ुद को खुशनसीब और मज़बूत इरादे वाली महिला मानती हैं। उन्होंने कहा, “हमने हमेशा जीवन में आगे ही देखा है। क्योंकि हमने क़ातिलों को माफ़ कर देने का फ़ैसला कर लिया था। हमने फ़ैसला कर लिया था कि मुझे देश में दोबारा सुख और शांति लाना है।”

हालाँकि, भारत में रवांडा की उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन की तरह ही हूतू समुदाय से जुड़े तमाम लोगों ने 7 अप्रैल 1994 से लेकर अगले सौ दिनों तक तुत्सी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले अपने पड़ोसियों, अपनी पत्नियों और रिश्तेदारों को खोया है। इस तरह इस जनसंहार में लगभग आठ लाख लोगों की मौत हुई।यही नहीं, बल्कि तुत्सी समुदाय की तमाम महिलाओं को सेक्स स्लेव बनाकर भी रखा गया।

आइए देखते हैं कि आख़िर ये नरसंहार शुरू कैसे हुआ और ख़त्म कैसे हुआ?

रवांडा में १९९४ में हुए नरसंहार को लगभग २८ साल हो गए हैं जब सौ दिन के भीतर आठ लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। मरने वालों में ज्यादातर अल्पसंख्यक तुत्सी कबीले के लोग थे। उनके साथ बहुसंख्यक हुतु कबीले के उदार लोगों की भी हत्याएं की गई। उस वक्त रवांडा पर चरमपंथी हुतु सरकार थी, जिसने तुत्सियों के साथ अपने समुदाय में मौजूद अपने विरोधियों का सफाया करने के लिए खास मुहिम चलाई। इस नरसंहार में हूतू जनजाति से जुड़े चरमपंथियों ने अल्पसंख्यक तुत्सी समुदाय के लोगों और अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया। रवांडा की कुल आबादी में हूतू समुदाय का हिस्सा 85 प्रतिशत है लेकिन लंबे समय से तुत्सी अल्पसंख्यकों का देश पर दबदबा रहा था।

साल १९५९ में हूतू ने तुत्सी राजतंत्र को उखाड़ फेंका। इसके बाद हज़ारों तुत्सी लोग अपनी जान बचाकर युगांडा समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में पलायन कर गए। इसके बाद एक निष्कासित तुत्सी समूह ने विद्रोही संगठन रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) बनाया। ये संगठन १९९० के दशक में रवांडा आया और संघर्ष शुरू हुआ. ये लड़ाई १९९३ में शांति समझौते के साथ ख़त्म हुई।

लेकिन छह अप्रैल १९९४ की रात तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति केपरियल नतारयामिरा को ले जा रहे विमान को किगाली, रवांडा में गिराया गया था। इसमें सवार सभी लोग मारे गए।किसने ये जहाज गिराया था, इसका फ़ैसला अब तक नहीं हो पाया है। कुछ लोग इसके लिए हूतू चरमपंथियों को इसके लिए ज़िम्मेदार मानते हैं जबकि कुछ लोग रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) को। चूंकि ये दोनों नेता हूतू जनजाति से आते थे और इसलिए इनकी हत्या के लिए हूतू चरमपंथियों ने आरपीएफ़ को ज़िम्मेदार ठहराया। इसके तुरंत बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया। आरपीएफ़ ने आरोप लगाया कि विमान को हूतू चरमपंथियों ने ही मार गिराया ताकि नरसंहार का बहाना मिल सके।

इस नरसंहार से पहले बेहद सावधानी पूर्व चरमपंथियों को सरकार की आलोचना करने वालों के नामों की सूची दी गई। इसके बाद इन लड़ाकों ने सूची में शामिल लोगों को उनके परिवार के साथ मारना शुरू कर दिया। हूतू समुदाय से जुड़े लोगों ने अपने तुत्सी समुदाय के पड़ोसियों को मार डाला। यही नहीं, कुछ हूतू युवकों ने अपनी पत्नियों को भी सिर्फ़ इसलिए ख़त्म कर दिया क्योंकि उनके मुताबिक़, अगर वो ऐसा न करते तो उन्हें जान से मार दिया जाता।

उस समय हर व्यक्ति के पास मौजूद पहचान पत्र में उसकी जनजाति का भी ज़िक्र होता था, इसलिए लड़ाकों ने सड़कों पर नाकेबंदी कर दी, जहां चुन-चुनकर तुत्सियों की धारदार हथियार से हत्या कर दी गई।हज़ारों तुत्सी महिलाओं का अपहरण कर लिया गया और उन्हें सेक्स स्लेव की तरह रखा गया।

क़रीब ३ महीने बाद युगांडा सेना समर्थित, सुव्यवस्थित आरपीएफ़ ने धीरे-धीरे अधिक से अधिक इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लिया। और फिर ४ जुलाई १९९४ को इसके लड़ाके राजधानी किगाली में प्रवेश कर गए। बदले की कार्रवाई के डर से 20 लाख हूतू, जिनमें वहां की जनता और हत्याओं में शामिल लोग भी थे, पड़ोस के डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो में पलायन कर गए। कुछ लोग तंज़ानिया और बुरुंडी भी चले गए।

रवांडा नरसंहार के क़रीब ८ साल बाद २००२ में एक अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत का गठन हुआ लेकिन उसमें हत्या के ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा नहीं मिल पाई। इसकी जगह दोषियों को सज़ा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तंज़ानिया में एक इंटरनेशनल क्रिमिलन ट्रिब्यूनल बनाया। जिसमें कुल ९३ लोगों को दोषी ठहराया गया और पूर्व सरकारों के दर्जनों हूतू अधिकारियों को भी सज़ा दी गई।

रवांडा में सामाजिक अदालतें बनाई गईं ताकि नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार हज़ारों संदिग्धों पर मुकदमा चलाया जा सके। लेकिन, मालूम हो कि मुकदमा चलने से पहले ही क़रीब १० हज़ार लोगों की मौत जेलों में हो गई। एक दशक तक ये अदालतें पूरे देश में हर हफ़्ते लगती थीं, अक्सर ये बाज़ारों या किसी पेड़ के नीचे लगती थीं। इनके सामने हल करने को १२ लाख मामले थे।

भारत में रवांडा की उच्चायुक्त मुकांगिरा जैकलिन की माने तो रवांडा ने नरसंहार के बाद अब ख़ुद सँभाल लिया है। संसद में ६० फ़ीसदी से ज़्यादा महिला का होना इस बात को दर्शाता है कि महिलाओं ने मज़बूती के साथ हालात का सामना किया है। आंतरिक संघर्ष से टूट चुके इस देश को पटरी पर लाने के लिए राष्ट्रपति पॉल कागामे को श्रेय दिया जाता है। जिनकी नीतियों ने ही देश में तेज़ आर्थिक विकास की नींव रखी। उन्होंने रवांडा को टेक्नोलॉजी हब बनाने की कोशिश की और वो ख़ुद ट्विटर पर बहुत सक्रिय रहते थे।

 

-डॉ. म. शाहिद सिद्दीक़ी ,
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