फेंक न्यूज़ के दौर में “मौलवी बाकर” जैसे पत्रकार की जरूरत

फ़ोटो: मौलवी मुहम्मद बाकर

आजादी का अमृत महोत्सव यानि आजादी के 75 साल पूरा होने के मौक़े पर आप अबतक सैकड़ों कहानियाँ सुन चके होंगे। लेकिन, आज मैं एक ऐसे शख़्स की कहानी से आपको रूबरू कराऊँगा, जो आज के दौर में भी हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यानि फेंक न्यूज़ के दौर में आज हमें उसकी कमी महसूस हो रही है। जी, हाँ वही शख़्स जिसने १८५७ में अंग्रेजों द्वारा फैलाए जा रहे अफ़वाहों (फेंक न्यूज़) के ख़िलाफ़ मुहीम अपने अख़बार के जरिए शुरू किया था। वो कोई और नहीं, बल्कि वो देश की आजादी में शहादत देने वाले पहले पत्रकार मौलवी मुहम्मद बाकर थे।
वहीं उर्दू पत्रकार जिन्होंने 4 जून 1857 को अपने अखबार में शीर्षक “इस अवसर को मत चूको, अगर तुम चूक गए तो कोई मदद के लिए नहीं आएगा” यह ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाने का एक शानदार अवसर है;- के साथ एक लेख प्रकाशित किया था। अंग्रेज इस खबर से इस कदर स्तब्ध थे कि उन्हें 14 सितंबर 1857 गिरफ्तार कर, 16 सितंबर 1857 को मौलवी मुहम्मद बाकर को तोप से बांधकर उड़ा दिया गया। उन्हें राजद्रोह और ब्रिटिश शासन के खिलाफ भावनाओं को भड़काने, विद्रोहियों की मदद करने का दोषी ठहराया गया था। अंग्रेज उनसे इतना डरते थे कि उनकी गिरफ्तारी के दो दिनों में न्यायिक परीक्षण पूरा हो गया था।

दरअसल, मौलवी मुहम्मद बाकर एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिनकी कलम ने ही अंग्रेजों को देश के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया था। आज जब पत्रकारिता अपने स्तर के सबसे निचले पायदान पर पहुँच चुका है, जहां पत्रकार सिर्फ़ प्रवक्ता बन कर रह गए हैं या फिर किसी बिज़नेस घराने के गुलाम। कभी देश का चौथा स्तंभ माना जाने वाली पत्रकारिता, आज धराशायी हो चुका है। ऐसे नाज़ुक दौर में उन्हें याद कर सीख लेना बेहद लाज़िमी हो जाता है।

राजधानी दिल्ली में शनिवार शाम को ऐवान-ए-गालिब में आयोजित “शहीदे सहाफ़त मौलवी मुहम्मद बाकर अवार्ड समारोह” इसकी बानगी थी। इस समारोह में जहां उन्हें याद कर नए ज़माने के पत्रकारों को हिदायत दी गई, तो वहीं शायरों में अपने-अपने अंदाज में देश के हालात से वहाँ मौजूद लोगों को रूबरू कराया।

दरअसल, साल 1780 में दिल्ली में पैदा हुए मौलवी मुहम्मद बाकर दिल्ली के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता मौलाना मोहम्मद अकबर एक इस्लामी विद्वान थे। बकर अली ने घर पर ही धार्मिक शिक्षा प्राप्त की। बाद में, उन्होंने अपने समय के एक प्रसिद्ध विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक से धर्म का अध्ययन किया।

1825 में, उन्होंने दिल्ली कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी की और उसी कॉलेज में फारसी के शिक्षक बन गए। वह कई वर्षों तक सरकारी विभागों में जिम्मेदार पदों पर भी रहे, फिर भी उनका मन उसमें नहीं था। वह ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनी प्रजा के दमन को देखकर बेचैन था। अंत में, उसके दिल का अनुसरण करते हुए और अपने पिता से अनुमति लेने के बाद, बकर अली ने सरकार से इस्तीफा दे दिया।

मौलवी बकर अली ने 22 मार्च 1822 को कलकत्ता से भारतीय उपमहाद्वीप दिल्ली उर्दू साप्ताहिक और जाम-ए-जहाँ नुमा का दिल्ली का पहला और दूसरा उर्दू अखबार शुरू किया। यह अखबार भारतीय उपमहाद्वीप का पहला उर्दू अखबार था। साल 1834 में सरकार ने प्रेस एक्ट में संशोधन कर अखबार को बाहर निकालने की इजाजत दे दी।

जिसके बाद साल 1837 में मौलवी बाकर ने एक प्रेस खरीदा और दिल्ली से ही ‘दिल्ली उर्दू अखबार’ निकालना शुरू किया। और उन्हीं अंग्रेजों के खिलाफ देश की जनता को जगाने का काम किया। जिससे वह अंग्रेजों की आंखों में दस्तक देने लगा और ब्रिटिश सरकार लगातार उसके खिलाफ फरमान जारी करने लगी।

उस समय, सुल्तानुल, सिराजुल और सादिकुल समाचार पत्र भारत में फारसी भाषा में प्रकाशित हो रहे थे। मौलवी बकर अली ने उर्दू अखबार प्रेस का शुभारंभ किया, जो लगभग 21 वर्षों तक जीवित रहा। अखबार की कीमत 2 रुपये प्रति माह थी। इसके अलावा मौलवी बकर अली ने 1843 में एक धार्मिक पत्रिका मजहर-ए-हक भी प्रकाशित की जो 1848 तक प्रकाशित होती रही। जिस घर से मौलवी बाकर अली ने अपना देहली उर्दू साप्ताहिक अखबार प्रकाशित किया था, वह दरगाह पांजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से सटा हुआ था। यह अभी भी मौजूद है। इस समाचार पत्र ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए।

फ़ोटो: 16 सितंबर 1857 को मौलवी मुहम्मद बाकर को अंग्रेजों ने तोप से बांधकर उड़ा दिया गया था।

अखबार में मौलवी बाकर अली ने अपनी सोच और सरकार की नीतियों को बेनकाब करने के लिए एक मंच तैयार किया था। हालांकि शुरुआती दिनों में दिल्ली उर्दू वीकली ने ब्रिटिश शासन का ज्यादा विरोध नहीं किया, लेकिन 1857 तक मौलवी बकर अली ब्रिटिश सरकार के तीखे आलोचक बन गए थे। उन्होंने न केवल ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर बल्कि दिल्ली और उसके आसपास ब्रिटिश शासन पर भी कॉलम लिखे। उन्होंने अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ स्वतंत्रता की जनमत तैयार करने और समाज के सभी वर्गों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करने के लिए भी आवाज उठाई।

वैसे तो मेरठ छावनी में सैनिकों ने 1857 के विद्रोह की शुरुआत की, जिससे भारत की स्वतंत्रता का पहला लंबा युद्ध हुआ, हालाँकि, इसके आंदोलन को लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने अपनी कलम का इस्तेमाल अपनी भूमिका निभाने के लिए किया, जिससे औपनिवेशिक शासक मौलवी बाकर अली ने अपने साथियों से कहा था कि वह अपने देश की खातिर किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनके लेखन की शक्ति क्रांतिकारियों के नारों की तुलना में अंग्रेजों को अधिक परेशान करने वाली थी।

हालाँकि, दिल्ली उर्दू अखबार भी उस समय हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रबल समर्थक था। उन्होंने सांप्रदायिक तनाव फैलाने की अंग्रेजों की चालों का पर्दाफाश कर हिंदुओं और मुसलमानों को सचेत कर कई मौकों पर एकजुटता पैदा की। और आज जब हम दोबारा वैसे ही दौर में पहुँच चुके हैं, जहां सांप्रदायिक , अफ़वाह और नफ़रत आम बात हो चुकी है। ऐसे में एक बार फिर मौलवी मुहम्मद बाकर को याद करते हुए पत्रकारों ने नई मशाल जलाने की कोशिश की है।

सद्भावना टुडे और रियल थिंक फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित “शहीदे सहाफ़त मौलवी मुहम्मद बाकर अवार्ड समारोह” पत्रकारिता जगत को मौलवी मुहम्मद बाकर की पत्रकारिता शेली से वाकिफ कराने की एक सफल कोशिश थी, जिसमें देश के कई नामचीन पत्रकारों ने हिस्सा लिया। इस मौक़े पर जहां वरिष्ठ पत्रकार एस एम आसिफ़ को लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया, वहीं संजय सिंह जैसे जुझारू पत्रकार को भी सम्मानित किया गया। इस समारोह में पत्रकारों के अलावा, बिज़नेस और राजनीति से जुड़े लोग भी मौजूद थे।

-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी
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