कोविड-19: महामारी में शहरी भारत भी बेहाल, नहीं काम आई उनकी हैसियत !

कोविड-19 की महामारी ने भारत में शहरी विकास प्रक्रिया के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। या यूँ कहें कि इस महामारी ने पहली बार उनको याद दिलाई उनकी हैसियत। पिछले कुछ दशकों में, खासकर 1990 के दशक में शुरु हुए आर्थिक सुधारों के बाद, जिसमें शहर के विकास मॉडल में जन-यूटिलिटी के निजीकरण, भूमि के मुद्रीकरण और पूंजी गहन प्रौद्योगिकियों के निगमीकरण के माध्यम से अधिकतम लाभ कमाने की कोशिश की जा रही हैं। इस प्रक्रिया ने मजदूर वर्ग की संगठित ताकत को कमजोर कर दिया है और अनौपचारिक क्षेत्र पहले से अधिक बढ़ गया है।

पहले शहरी आयोग ने 1988 में निर्माण और औद्योगीकरण से भरपूर शहरी विकास की कल्पना की थी। वर्तमान परिदृश्य सेवा क्षेत्र पर अधिक आधारित है जहां राज सत्ता की तुलना श्रमिकों की सौदेबाजी की ताक़त सिकुड़ गई है। हुकूमत जिन्हे आवश्यक आपूर्ति के रूप में मानती है उन सभी मूलभूत सुविधाओं का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया जा रहा है। आवास, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और ऐसे अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर घनघोर निजीकरण किया जा रहा है। इससे देश के अमीर और गरीब के बीच बड़ा फासला पैदा हो गया है।

एक अन्य महत्वपूर्ण खासियत ये है कि शहरों से शहर और गाँव से शहर की ओर श्रमिकों का पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में लगभग 450 मिलियन प्रवासी मजदूर हैं, हालांकि 2011 की जनगणना के अनुसार गांवों से शहरों की तरफ प्रवास लगभग 52 मिलियन था, जिसमें करीब-करीब 6.5 प्रतिशत की छलांग है और इतनी ही संख्या ने शहरों से शहरों की तरफ प्रवास किया था। निश्चित तौर पर 2021 की जनगणना के आंकड़े इससे कहीं ज्यादा होंगे।भारत में प्रवासियों के प्रति कोई ठोस नीति नहीं है। सामाजिक सुरक्षा तंत्र, हालांकि कमजोर है, प्रवासियों को पूरी तरह से याद है कि जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, तो वे 24 घंटे भी शहरों में नहीं रुक सकते थे क्योंकि उन्हें पता था कि वे अगर रुक गए तो भूखे मर जाएंगे।

शहरी रोज़गार

लॉकडाउन के दौरान, कुल 8 करोड़ 70 लाख नौकरियों में से लगभग 25 प्रतिशत यानि 2 करोड़ 10 लाख नौकरियाँ खो गईं थी; इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित जो वर्ग हुआ वे सफेदपोश पेशेवर थे, जैसे कि इंजीनियर, चिकित्सक और शिक्षक आदि। 60 लाख ऐसी नौकरियां चली गई जो सभी सफेदपोश नौकरियों का करीब 31 फीसद हिस्सा था। वेतनभोगी कर्मचारियों की दूसरी सबसे अधिक प्रभावित श्रेणी औद्योगिक श्रमिक थे – इन्हे करीब 26 प्रतिशत नौकरियों का नुकसान हुआ। यह गिरावट छोटी औद्योगिक इकाइयों में सबसे अधिक स्पष्ट नज़र आती है क्योंकि लॉकडाउन से एमएसएमई क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। वर्ष 2019-20 में रोजगार दर 39.5 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत (अक्टूबर 2020) हो गई थी। इसका मतलब है कि इस अवधि के दौरान एक अरब लोगों में से करीब 1.5 फीसदी यानी करीब 15 मिलियन लोगों ने अपनी नौकरी खो दी थी।

लॉकडाउन के दौरान एक और महत्वपूर्ण विशेषता सकल मूल्यवर्धन में गिरावट का आना था, जिसने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में संकुचन पैदा कर दिया, जिससे बेरोजगारी बढ़ी और रोजगार में गिरावट आई: इससे जो क्षेत्र सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए उसमें निर्माण (-50%), व्यापार, होटल और अन्य सेवाएं (-47%), विनिर्माण (-39%), और खनन (-23%) थे। यहाँ यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि ये वे क्षेत्र हैं जो देश में सबसे अधिक नई नौकरियां पैदा करते हैं। ऐसे हालत में जब इनमें से प्रत्येक क्षेत्र इतनी तेजी से सिकुड़ रहा है – यानी, उनका उत्पादन और आय गिर रही है – जिसके चलते अधिक से अधिक लोगों को या तो नौकरियों से हाथ धोना पड़ रहा है (यानि रोजगार में गिरावट) या फिर रोज़गार पाने में विफलता पैदा हो रही है (यानि बेरोजगारी में वृद्धि होगी)।

लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद अप्रैल 2020 में बेरोजगारी की दर बढ़कर 24 प्रतिशत हो गई थी और शहरी श्रम भागीदारी दर जनवरी 2020 में 40.46 से गिरकर अप्रैल 2020 में 32.47 हो गई थी। हालांकि, इसी अवधि के दौरान शहरी पुरुष वर्ग के लिए यह 65 प्रतिशत से गिरकर करीब 40 प्रतिशत हो गई थी, (वैश्विक एलएफपीआर 70 प्रतिशत से अधिक है, और यह भारत में अनिश्चित स्थिति को दर्शाता है- कि शायद ही कोई रोजगार मौजूद है)। द हिंदू में सुरेश बाबू और चंदन के अनुसार, अनौपचारिक रोज़गार कामकाजी लोगों के भीतर गरीबी को कम करने की संभावनाओं को कमजोर कर रही है। महामारी और उसके प्रति नीतिगत प्रतिक्रियाओं ने इन शहरी नौकरियों की भेद्यता को उजागर किया है।

इस अवधि के दौरान आतिथ्य यानि होस्पिटलिटी, रियल एस्टेट, निर्माण, खुदरा, एसएमई और उनकी सहायक विनिर्माण इकाइयों जैसे क्षेत्रों के वेतनभोगी नौकरी धारक बेरोजगार हो गए हैं।

बढ़ती बेरोजगारी को रोकने के लिए हिंदुस्तान के हर शहर में शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू की जानी चाहिए। शहरी बेरोजगारी 10 प्रतिशत के करीब बनी हुई है। बुनियादी ढांचे में निवेश होना जरूरी है लेकिन वह बड़ी पूंजी-गहन प्रौद्योगिकियों के माध्यम से नहीं बल्कि नगरपालिका बुनियादी ढांचे श्रमयुक्त दृष्टिकोण के साथ होना चाहिए। शहरी रोजगार में कुछ कामों को शहरों के भीतर जल निकायों के बड़े पैमाने पर कायाकल्प से जोड़ा जा सकता है। इनमें से अधिकांश जल निकायों की उपेक्षा की जाती है और इससे पानी की आपूर्ति पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। शहरों से लौटे श्रमिकों को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में काम देने की क्षमता काफी कम है और इन श्रमिकों को एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करने के मामले में कृषि की व्यवहार्यता संदिग्ध है।

आवास का मुद्दा

वर्तमान में सरकार की नीति बाजार-उन्मुख आवास की अधिक है। 2014 के बाद से सार्वजनिक आवास 6 प्रतिशत से गिरकर 3 प्रतिशत हो गया है। समावेशी आवास की किसी भी स्थिति में यह 25 प्रतिशत से कम नहीं होना चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि लगभग 5 करोड़ लोग बिना घरों के हैं (जिनमें जीर्ण-शीर्ण घरों में रहने वाले लोग भी शामिल हैं)। मलिन बस्तियों का फैलाव बदस्तूर जारी है। शहरी आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा बड़े शहरों की मलिन बस्तियों में रहता है। 2011 की जनगणना के अनुसार यह हिस्सा लगभग 20 प्रतिशत है जबकि विश्व बैंक का अनुमान है कि लगभग 35.2 प्रतिशत लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं।
एक अन्य हक़ीक़त लगभग 40 प्रतिशत लोग एक कमरे के घर में रहते हैं और 75 प्रतिशत दो कमरों के घर में में रहते हैं, जबकि घरों का औसत आकार 25 वर्ग मीटर से अधिक नहीं है। आवास के लिए बनी प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) अपने लक्ष्य से कम कम कर रही। 2020-21 में केवल 5.4 प्रतिशत घरों को ही मंजूरी दी गई थी। प्रधानमंत्री आवास योजना में चार कार्यक्षेत्र हैं। एआरएचसी यानी किफायती किराये के आवास में 80,369 घर बनने थे, जबकि बने केवल 1,703 घर।

दिलचस्प बात यह है कि जेएलएल (कमर्शियल रियल एस्टेट कंपनी) के सर्वेक्षण 2020 से पता चलता है कि 550 बिलियन अमरीकी डालर यानि करीब 40 लाख करोड़ रुपये की कीमत वाले 4.6 लाख घर तैयार खड़े हैं, लेकिन कोई खरीदार नहीं है। एक अन्य रिपोर्ट में, 9.38 लाख करोड़ रुपये के 13 लाख घर हैं, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5 प्रतिशत है, बिना बिके पड़े हैं। इसी तरह, भारतीय रिजर्व बैंक का अनुमान है कि 80 लाख करोड़ रुपये की 9.5 लाख संपत्तियां (या मकान) निर्माण प्रक्रिया में फंसे हुए हैं। यह भारत में आवास पैटर्न और उनकी दशा और उनमें आए परिवर्तनों को दर्शाता है।

असंगठित क्षेत्र

आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, असंगठित क्षेत्र में कुल कार्यबल का 93 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। महामारी के दौरान यह क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुआ था क्योंकि इन श्रमिकों के लिए शायद ही कोई सामाजिक सुरक्षा तंत्र उपलब्ध था।
देश में लगभग 80 प्रतिशत कार्यबल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इनमें से चार फीसदी ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी हैं। पांच में से केवल एक के पास मासिक वेतन वाली नौकरी है। कर्मचारियों का आधा हिस्सा स्वरोजगार के जरिए काम करता है। ये दुकानदार, फेरीवाले, सैलून चलाने वाले, साइकिल मरम्मत करने वाले, दर्जी तथा मोची आदि का काम करने वाले हैं। लॉकडाउन की घोषणा के बाद ये तबका सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। दरअसल, आर्थिक व्यवस्था का हर क्षेत्र एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।

इस वक़्त के दौरान देश की सामाजिक संरचना में भी अभाव नज़र आया। सिविल सोसाइटी समूहों द्वारा किए गए दो प्राथमिक सर्वेक्षणों के अनुसार, कुल राहत शिविरों में से 63 प्रतिशत को हुकूमत से कोई वास्ता न रखने वाले लोगों ने चलाया था जबकि राज्य सरकारों की तरफ से केवल 17 प्रतिशत शिविर चलाए जा रहे थे। सर्वेक्षण के लिए दिल्ली से 4,763 प्रवासी कामगारों का नमूना लिया गया था जो लॉकडाउन के दौरान वापस गाँव चले गए थे; उनमें से करीब 86 प्रतिशत किराए के घर यानि झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में रह रहे थे। केवल 4 प्रतिशत श्रमिकों के पास कार्य स्थल पर रहने की जगह थी।

भारत भर में 11,550 से अधिक श्रमिकों के एक अन्य बड़े सर्वेक्षण के मद्देनजर, जो वापस चले गए थे, उनमें से 80 प्रतिशत मजदूर कारखाने/निर्माण श्रमिक थे। उनकी दैनिक औसत मजदूरी 400 रुपये से 460 रुपये के बीच थी; लॉकडाउन के दौरान इनमें से 72 फीसदी के पास सिर्फ दो दिन का राशन था; 89 फीसदी को अर्जित वेतन नहीं दिया गया था; 75 प्रतिशत ने अपना रोज़गार खो दिया था और 53 प्रतिशत अतिरिक्त कर्ज़ के बोझ में दब गए थे। किसी के पास शायद ही कोई संपत्ति थी।यहां तक कि मध्यम वर्ग भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआथा। गुड़गांव जैसे शहर में विभिन्न सहअधिकार वाले लोगों में, प्रति-घर रखरखाव की लागत 5,000 रुपये से 7,000 रुपये हो गई थी। इसी तरह, बिजली के लिए, प्रति यूनिट लागत 21 रुपये ली जाने लगी जो पहले 17 रुपये थी।शहरी कार्यबल बड़े कर्ज़ में फंस गया। घरेलू कर्ज का दायरा 2018 में 32.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 38 प्रतिशत हो गया है।

आर्थिक बोझ बढ़ाने वाली शहरी नीतियां

15वें वित्त आयोग ने इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि जो शहर/नगर संपत्ति कर के रूप में संपत्ति पर उपयोगकर्ता शुल्क में वृद्धि जारी नहीं रखेंगे, वे अपना अनुदान खो देंगे। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश पहले से ही संपत्ति कर शुल्क बढ़ाने के दबाव से जूझ रहे हैं। इसके साथ ही, पानी और स्वच्छता पर उपयोगिता शुल्क में काफी वृद्धि हुई है।इसी तरह, शहरी गतिशीलता और स्वच्छता (बड़े एसटीपी और ऊर्जा संयंत्रों के लिए अपशिष्ट पर ध्यान केंद्रित करना) में पूंजी गहन प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल बड़े कर्ज़ पैदा करता है क्योंकि लोगों को प्लांट के संचालन और रखरखाव की लागत के लिए असमान शुल्क के रूप में उपयोगकर्ता शुल्क का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जाता है। स्वच्छता के बाद, पानी एक और ऐसा क्षेत्र है जिसे मोदी सरकार ने घनघोर रूप से निजीकरण के लिए निशाना बनाया है। जल जीवन मिशन (JJM) के तहत 2024 तक हर घर में पीने योग्य नल का पानी उपलब्ध कराने का लक्ष्य है। यह नितांत आवश्यक और ठीक है। लेकिन जिस तरह से इसे किया जा रहा है वह उपरोक्त मंशा के बिल्कुल उलट है – यह प्रावधान सरकार के इरादे से मेल नहीं खाते हैं। जिस मॉडल का अनुकरण किया जा रहा है वह तेलंगाना का मिशन भगीरथ मॉडल है, जिस पर 50,000 करोड़ रुपये से अधिक का खर्च आया है और 80 प्रतिशत पैसा बाजार से उधार लिया गया है।पूंजी निवेश और संचालन प्रबंधन पूंजी गहन प्रौद्योगिकियों के लिए हैं।
जेजेएम समान/इक्विटी भागीदारी का दावा करता है – जिसमें सेवाओं के लिए भुगतान और पानी को सभी के लिए व्यवसाय बनाना है। ‘पानी एक अधिकार है’ के सिद्धांत से जल प्रबंधन यानि ‘पानी एक जरूरत है’ के सिद्धांत का संक्रमण जेजेएम में स्पष्ट देखने को मिलता है और इस जरूरत को किसी भी सेवा प्रदाता द्वारा पूरा किया जा सकता है – निजी या सार्वजनिक!

कुछ बड़े महानगरों के मास्टर प्लान भी अपडेट किए जा रहे हैं। दिल्ली एमपीडी 2041 इस प्रक्रिया में है। इन मास्टर प्लान में नाटकीय बदलाव आया है। दो राज्यों में दिलचस्प घटनाक्रम घटे हैं। दिल्ली में, मास्टर प्लान नेहरूवादी योजना मॉडल से कॉर्पोरेट संचालित योजना में बदलाव को दर्शाता है। पहले की योजनाओं (1961 की दिल्ली) में शहरी सामाजिक आवास (एलआईजी, जनता फ्लैट आदि) के लिए पर्याप्त जगह थी, हालांकि वह कभी पूरा नहीं हुआ। जबकि, नया मसौदा योजना TOD (ट्रांजिट ओरिएंटेड डेवलपमेंट) पर अधिक केंद्रित है। दरअसल टीओडी शहरी विकास का नया मंत्र बनने जा रहा है। हालांकि यह आवास के मजबूत अंतर्संबंधों के साथ शहरी गतिशीलता के बारे में बात करता है, फिर भी यह मध्यम वर्ग के शहरी आवास पर केंद्रित है और गरीबों और श्रमिक वर्ग के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं है। टीओडी वास्तव में भूमि मुद्रीकरण है और आने वाले वर्षों में शहरी स्पेक्ट्रम में यही देखा जाएगा। एम्स और महानगर के पुनर्विकास, आदि की बहुत कम झलक मिलती हैं।

तमिलनाडु एक और ऐसा राज्य है जो शहरी विकास मॉडल को बहुपक्षीय एजेंसियों द्वारा निर्धारित सिद्धांतों से पूरा करता है और विश्व बैंक शहरी विकास प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने में सहायक का काम करता है। पानी, मकान आदि के मुद्रीकरण को एक ही चश्मे से देखा जाएगा। रेहड़ी-पटरी वालों को हटाना, झुग्गी-झोपड़ियों वालों को शहरी ज़मीन से बेदखल करना और संपत्ति कर के मुद्दे सभी इस डिजाइन के अभिन्न अंग हैं।

इसी तरह स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र पर खर्च काफी कम हो रहा है। अधिक डिजिटलाइजेशन के साथ वेंचर फंड शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। केवल 27 प्रतिशत भारतीय घरों में इंटरनेट की पहुंच है। शहरी परिवारों का प्रतिशत अधिक है लेकिन वह भी शिक्षा मानकों के सार्वभौमिकरण के स्तर को पूरा करने के मामले में पूरी तरह से अपर्याप्त है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, जो बीमा आधारित है, महामारी के दौरान बुरी तरह लड़खड़ा गया था। भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत से भी कम है (जबकि, आर्थिक सर्वेक्षण न्यूनतम 3 प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश करता है), हालांकि, सरकार इस महत्वपूर्ण क्षेत्र को निजी खिलाड़ियों को सौंपने में अधिक रुचि रखती है। स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक खर्च लोगों की भलाई का सबसे सर्वोत्तम रास्ता है। इसलिए नगर नियोजन या योजना में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं, बल्कि सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल अधिक देखे जा सकते हैं, जो आम लोगों को भयंकर रूप से लूटते हैं।

सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना दिल्ली में एक और महत्वपूर्ण परियोजना है जिसे प्रधानमंत्री ने नए संसद भवन और परमाणु बंकर आदि के साथ अपने लिए एक बड़ी हवेली के निर्माण की योजना को तेज़ी से लागू करना शुरू कर दिया है। इसकी लागत 20,000 करोड़ रुपये से अधिक है, यह एक पूर्ण रूप से घमंडी परियोजना है जो न केवल सरकार की घोर असंवेदनशीलता को दर्शाती है, बल्कि शहरी शासन की निरंकुशता को भी प्रदर्शित करती है।

शहरी विकास रणनीतियों का यह रूप टिकाऊ नहीं हैं जो आम लोगों को अधिक अलगाव की ओर ले जाएगा और उनके दुख और तकलीफ़ों को और अधिक बढ़ाएगा।

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