कॉप का 14वां सम्मेलन के जरिए दुनिया को संदेश- “अब मंथन नहीं, सिर्फ एक्शन की जरूरत”  

आज दुनियाभर में 70 फीसदी से ज्यादा जमीन – भोजन, कपड़े और ऊर्जा के उत्‍पादन के लिए अपनी प्राकृतिक अवस्था खो चुकी है। हालांकि इसमें से कुछ परिवर्तन ज़रूरी थे, लेकिन जिस गति से भूमि का स्‍वरूप बदला जा रहा है, वो बहुत चिंताजनक है।  और इससे 10 लाख से ज्यादा प्रजातियों के लुप्‍त होने का ख़तरा भी उत्‍पन्‍न हो गया है।  इस बदलती जमीनी तस्वीर का हर चार में से एक हेक्‍टेयर क्षेत्र, असंवहनीय भूमि प्रबंधन विधियों के कारण उपयोग लायक नहीं रह गया है।

जिसकी वजह से आज विश्‍व में तीन अरब 20 करोड़ लोगों की खुशहाली ख़तरे में पड़ गई है। आशंका है कि इन वजहों से साल 2050 तक 70 करोड़ लोगों को अपने निवास स्थानों से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

इस स्थिति को बदलने और पर्याप्त क़दम उठाने के लिए 196 देशों के लगभग सात हज़ार 200 प्रतिनिधि भारत में आयोजित  कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ यानी कॉप का 14वां सम्मेलन में शामिल हुए। जिसमें इन देशों के मंत्री और सरकारों, गैर-सरकारी और अंतर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि, वैज्ञानिक, महिलाएं और युवा शामिल थे।

भूमि को जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से बंजर होने से बचाने के लिए आयोजित कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ यानी कॉप का 14वां सम्मेलन भारत में सोमवार यानि 9 सितंबर 2019 को आरंभ हुआ, जिसमें जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण के अलावा बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के तरीक़ों पर भी मंथन किया गया।

कॉप-14 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु और पर्यावरण में आ रहे बदलावों के खिलाफ दुनिया के एक होने की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने कहा, ‘जलवायु और पर्यावरण का असर बायोडायवर्सिटी और भूमि, दोनों पर पड़ता है। सर्वमान्य तथ्य है कि दुनिया जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों का सामना कर रही है।’

संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 अभी तक के मौजूद रिकॉर्ड में चौथा सबसे गर्म साल रहा है। आने वाले सालों में तापमान में और बढ़ोतरी होगी और यह स्थिति पृथ्वी के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकती है।

दुनिया के तापमान में यह बढ़ोतरी किसी एक या दो साल की नहीं है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की मौसम शाखा का भी कहना है कि दुनिया के तापमान में यह बढ़ोतरी एक लम्बे समय से चलती आ रही है। पिछले चार साल सबसे अधिक बढ़ते तापमान वाले साल रहे हैं। इसलिए यह और भी बहुत अहम हो जाता है।

इसी सिसलसिले में संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मौसम विभाग शाखा का कहना है कि इस साल दुनिया  के तापमान में औद्यौगिक दौर (1850 -1900)के औसत तापमान की अपेक्षा 1 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इस बढ़ोतरी की वजह से ही इस साल दुनिया को जलवायु से जुड़ी कुछ भीषण घटनाओं का समाना करना पड़ा। केरल की बाढ़, दक्षिण अफ्रीका का सूखा और ग्रीस और कैलिफोर्निया के जंगलों  में लगी आग के पीछे जलवायु परिवर्तन ही बहुत बड़ा कारण था। पिछले 22 साल में 20 साल दुनिया के अब तक के सबसे गर्म साल रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिक दुनिया की स्थिति को बहुत गंभीर बता रहे हैं। वह यहां तक चाहते हैं कि दुनिया की सरकारों को बड़े अक्षरों में  यह लिखकर सौंपे की ‘ACT NOW IDIOTS’ ताकि सरकारें इस मुद्दों को गंभीरता से लें। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन की भयावहता पर लगाम लगाने के लिए अगले दो दशकों में दुनिया के कुल जीडीपी का तकरीबन 2.5 फीसदी  जलवायु परिवर्तन से जुड़े उपायों पर खर्च होना चाहिए। इसके बाद जंगलों से लेकर पौधों की तरफ बहुत अधिक ध्यान देने की जरूरत है और इनके एरिया में बढ़ोतरी करने की जरूरत है  ताकि कार्बन उत्सर्जन कम हो।

अगर वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो अमेरिका जैसा देश जिसने विश्व की सम्पदा का  सबसे अधिक दोहन किया है, इसके बावजूद वह जलवायु परिवर्तन पर गैर-जिम्मेदराना रवैया दिखा रहा है।  और दूसरी तरफ विकासशील देशों की आदत विकसित देशों का पिछलग्गू बनने की रही है।  इसलिए भारत को भी लगता है कि पर्यावरण और संसाधनों के दोहन पर ही विकास सम्भव है।

भारत पर नजर डालें तो पता चलता है कि करीब 50 फीसदी लोग खेती से जुड़े हैं। लेकिन साल 2015-16 के आंकड़ों के मुताबित जीडीपी में इसका योगदान महज 17.5 फीसदी रह गया है, जबकि 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि का योगदान 50 फीसदी था। हालांकि, खेती के गर्त में जाने की कई वजह रही हैं।  इसमें से एक प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। भारत में जलवायु परिवर्तन की वजह से सूखा, बाढ़ और बेमौसम बरसात होती है। इसकी वजह से खेती को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा। ऐसे में किसान आत्महत्या जैसे कदम उठान को मजबूर है।

इस मामले में ब्रिटेन दुनिया में सबसे आगे निकला, जहां जलवायु परिवर्तन आपात स्थिति घोषित की गई। ब्रिटेन जलवायु परिवर्तन को आपतकाल घोषित करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। भारत को इस मामले में बहुत कुछ करना है।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2050 तक भारत की जीडीपी करीब 2.8 प्रतिशत कम हो सकती है। इससे भारत को करीब 82 लाख करोड़ रुपए के नुकसान की संभावना है। इसकी चपेट में आने वाले दस सबसे प्रभावित जिलों में महाराष्ट्र के सात, छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव एवं दुर्ग और मध्य प्रदेश का होशंगाबाद होगा। यह सभी जिले अगले 32 सालों में देश के सबसे गरम स्थान होंगे।

रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में एक से दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो सकती है साथ ही मानसूनी बारिश का चक्र में बदलाव दिखेगा। इससे वर्ष 2050 तक देश की लगभग आधी आबादी का जीवन स्तर प्रभावित होगा। रिपोर्ट के मुताबिक, इसका असर देश की करीब 60 करोड़ आबादी पर पड़ेगा। वहीं इसकी सबसे ज्यादा मार कृषि क्षेत्र पर पड़ेगी, जिसकी उत्पादकता में काफी गिरावट आ सकती है। स्वास्थ्य पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा।

कॉप-14 में अपने संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के प्रतिनिधियों के चेताते हुए कहा कि, ‘हम कितने भी फ्रेमवर्क लागू कर लें, लेकिन असली बदलाव हमेशा टीमवर्क से ही आता है।”

भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मामलों के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी कॉप -14 में कहा, ”अगर मनुष्य की गतिविधियों से जलवायु परिवर्तन, भूमि और जैव-विविधता को नुक़सान हुआ है तो मज़बूत इरादों, तकनीक और समझदारी से स्थिति को बदला भी जा सकता है। ”

हालांकि इसी सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण और प्लास्टिक बैन पर जोर देते हुए पीएम मोदी कहा कि,  ‘मेरी सरकार ने घोषणा की कि भारत आने वाले सालों में सिंगल यूज़ प्लास्टिक का खात्मा कर देगा। मेरे विचार में समय आ चुका है, जब सारी दुनिया को सिंगल यूज़ प्लास्टिक को बाय बाय कह देना चाहिए।’ भारत ने दो अक्टूबर से सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक लगाने का ऐलान भी किया है।

ऐसे में उम्मीद है भारत की पहल और दुनिया भर में पर्यावरण पर मंथन से जलवायु पर जरूर साकारात्मक असर होगा।

  -डॉ. मो. शाहिद सिद्दीकी

 Follow via twitter @shahidsiddiqui

इसे शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *