‘आईआईटी में देश की आधी आबादी की 10 फीसदी भागीदारी’


घरों में काम करने वाली सुषमा के परिवार में 5 सदस्य हैं : मांबाप, 2 बेटियां और 1 बेटा, यानी 2 पुरुष और 3 औरतें. घर के काम पांचों ही करते हैं. दोनों बेटियां मां के साथ मिल कर सुबह घर के कामकाज निबटा कर चार पैसे कमाने निकलती हैं और तब जा कर एक महानगर में किराए के मकान में रहते हुए और अपने खर्च चलाते हुए यह मुमकिन हो पाता है कि सुंदरवन के किसी गांव में रहने वाले एक परिवार को पैसा भेजा जा सके. सुषमा और उस की मां जैसी महिलाएं असंगठित यानी अनऔर्गनाइज्ड वर्कफोर्स का हिस्सा हैं. गांवों की अर्थव्यवस्था में ऐसी महिलाएं अहम भूमिका अदा करती हैं.

ये महिलाएं वर्कफोर्स का एक हिस्सा हैं, एक बेहद उपयोगी और लाभकारी पर कम पढ़ा या अनपढ़ हिस्सा. वर्कफोर्स के दूसरे हिस्से को परिभाषित करना थोड़ा आसान है. संगठित क्षेत्र में अपनी शिक्षा और काबिलीयत के दम पर अपना परचम लहराने वाली महिलाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा से ले कर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से ले कर सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में, यहां तक कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी अपना नाम रौशन कर रही हैं. सेना से ले कर मैडिकल, हौस्पिटैलिटी से ले कर बैंकिंग तक में उन की भागीदारी दिखाई देने लगी है. यहां तक कि पुरुषप्रधान क्षेत्र माने जाने वाले रेलवे चालक और आटो ड्राइवरी में भी इक्कादुक्का ही सही, महिलाओं की भागीदारी के किस्से सुनने को मिल जाया करते हैं.

आंकड़े एकत्रित करने वाली एजेंसियां स्वीकार करती हैं कि कामकाजी होने के तौर पर महिलाओं की भागीदारी को अकसर वास्तविकता से बहुत कम आंका जाता है. बावजूद इस के, पिछले सालों में पेड वर्कफोर्स यानी वेतनभोगी जनबल में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है.

बढ़ी है आमदनी भी

आप को जान कर हैरानी होगी कि सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में कुल वर्कफोर्स का 30 फीसदी महिलाएं हैं और तनख्वाह, पोजिशन या सुविधाओं के लिहाज से वे अपने पुरुष सहयोगियों से पीछे नहीं हैं.

2001 में भारत में शहरी महिलाओं की औसत मासिक आमदनी साढ़े 4 हजार रुपए से कम थी, जो 2010 तक बढ़ कर दोगुनी से भी ज्यादा यानी 9,457 रुपए हो गई. महिलाओं की आमदनी में हुई इस वृद्धि का असर सीधे तौर पर परिवार की आमदनी पर पड़ा जो 10 सालों में 8,242 रुपए से बढ़ कर 16,509 रुपए हो गई. इतना ही नहीं, भारत में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी (पर कैपिटा इनकम) 16,688 रुपए से बढ़ कर 54,825 रुपए हो गई, यानी आमदनी में 228 फीसदी वृद्धि हुई.

आमदनी बढ़ने का असर परिवार के रहनसहन और खर्च करने की ताकत पर भी पड़ा. कृषि और कृषि से जुड़े क्षेत्रों के वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं. बल्कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तकरीबन 90 फीसदी है. वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, खेतों में महिलाएं कुल मजदूरी की 55 फीसदी से 66 फीसदी तक की भागीदारी निभाती हैं जबकि डेयरी प्रोडक्शन में तो उन की भागीदारी 94 फीसदी है. जंगलों से जुड़े छोटे और गृह उद्योगों में 51 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं और यही बात हथकरघा उद्योग के मामले में भी लागू होती है.

बदली है हमारी भी सोच

धीरेधीरे ही सही, लेकिन वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को न सिर्फ अहमियत दी जा रही है बल्कि तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद उन्हें शिक्षित होने और काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. शहरीकरण और भूमंडलीकरण का नतीजा कह लीजिए कि शहरों में डबल इनकम यानी दोगुनी आय की आवश्यकता महसूस होने लगी.

20 साल पहले तक महिलाएं किसी मजबूरी की वजह से काम करने निकला करती थीं. उन के लिए काम भी तय थे, स्टैनोग्राफर, टाइपिस्ट, रिसैप्शनिस्ट या फिर टीचर. वक्त के साथसाथ नए आयाम खुले और ये सोच भी बदली. कुछ समाज बदला, कुछ समाज की जरूरतों के हिसाब से नीतियां बदलीं. मैटरनिटी लीव और बेहतर वेतन की मांग धीरेधीरे पूरी होने लगी तो महिलाओं के लिए काम करना थोड़ा आसान हुआ. हालांकि, वर्कप्लेस पर बराबरी की मांग अभी भी जोरशोर से उठाई जाती है. हम इस सफर में आगे बढ़े हैं और नए रास्ते भी खुलने लगे हैं.

शिक्षा ने इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाई है. 1991 में जहां मात्र 39.29 फीसदी महिलाएं साक्षर थीं वहीं 2001 में महिलाओं की साक्षरता बढ़ कर 53.67 फीसदी हो गई. 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक अब 65.46 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं और पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता की दर के बीच के अंतर में भी गिरावट आई है.

साक्षर महिलाओं ने अपने आसपास दिखाई देने वाले काम के अवसरों का भरपूर फायदा उठाया और परिवार तथा समाज की बेहतरी में योगदान दिया. पंचायत में महिलाओं को मिलने वाले 33 फीसदी आरक्षण ने न सिर्फ गांवों और पंचायतों में उन के नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि कई पिछड़े इलाकों से महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए उठाए गए कदमों की खबरें भी आईं.

कच्छ में उजास रेडियो पर आ कर आमतौर पर दबीकुचली महिलाओं ने न सिर्फ अपनी समस्याओं के बारे में खुल कर बात की बल्कि ड्रिप इरिगेशन और बीज की बेहतर किस्मों के बारे में भी सवाल पूछे. वहीं, राष्ट्रीय राजनीति में अभी भी महिलाएं बड़ी भूमिका में नहीं आ पाई हैं. 11 फीसदी सांसद और मंत्री पदों पर मौजूद 10 फीसदी महिलाओं के कंधों पर ही सत्ता के केंद्र में जा कर आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का दारोमदार है.

अंबानी परिवार की बड़ी बहू की छवि से बाहर निकल कर एक सफल उद्योगपति और बिजनैसवुमैन के रूप में ?खुद को स्थापित करने वाली नीता अंबानी कहती हैं, ‘‘भारतीय महिलाओं को मल्टीटास्किंग में महारत हासिल है. आप भारत के किसी परिवार में चले जाएं, वहां पत्नी, बहू, मां और कई दूसरी भूमिकाओं के अलावा कामकाजी महिला की जिम्मेदारी निभाने वाली औरतें मिल जाएंगी.’’

मैटरनिटी ब्रेक से वापस आने वाली मांओं को फिर से उन के लायक काम दिलाने के लिए बनाई गई कंपनी फ्लैक्सिमौम्स अब कई शहरों में अपना नैटवर्क बना चुकी है. इस एक कंपनी से 1 लाख से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो इस बात का पुख्ता सुबूत है कि महिलाओं को भी दोगुनी जिम्मेदारी उठाने से गुरेज नहीं.

अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए 10 साल का ब्रेक लेने के बाद काम पर लौटीं सुरेखा जायसवाल कहती हैं, ‘‘काम तो मैं कालेज के बाद ही करने लगी थी. शादी के बाद भी घरपरिवार ने प्रोत्साहित ही किया. लेकिन बच्चों को वक्त देना चाहती थी, इसलिए ब्रेक लिया. बच्चे बड़े हो गए तो लगा कि न सिर्फ परिवार, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान दिया जाए और क्यों न हो, मेरे पास काबिलीयत है, प्रतिभा है और अब वक्त भी.’’

काबिलीयत का सही उपयोग

कामकाजी महिलाएं वक्त का इस्तेमाल वाकई सही तरीके से करती हैं और इस के एवज में असंगठित वर्कफोर्स को मिलने वाले काम के रूप में समाज को दिया गया उन का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता. एक बड़ी ई कौमर्स कंपनी की सीईओ अकसर कहा करती हैं, ‘‘या तो मैं घर से बाहर निकलूं और एक बड़ी कंपनी को और बड़ा बनाऊं, करोड़ों का बिजनैस करूं, अपने साथसाथ अपने 50 कर्मचारियों के बारे में सोचूं, एक कुक, एक मेड और एक ड्राइवर को नौकरी दूं व उन्हें अच्छी तनख्वाह दूं या फिर घर में रहूं, कुक, मेड और ड्राइवर का काम करूं और 12-15 हजार रुपए की बचत कर लूं. समझदारी भरा निवेश किसे कहेंगे?’’ यह दोहराने की अब आवश्यकता नहीं कि वाकई समझदारी भरा निवेश किसे कहा जाएगा.

यह निवेश परिवार की माली स्थिति को भी बेहतर बनाने में काम आया है. महिलाओं की ओर से आने वाली पूरक या अतिरिक्त आय ने शहरों में घर और संपत्ति में निवेश करने के रास्ते खोले, बच्चों को बेहतर स्कूलों में भेजा गया और जरूरतें पूरी होने के बाद शौक को पूरा करने में भी कोताही नहीं बरती गई.

द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास के उठान के पीछे महिलाओं की ओर से आने वाली अतिरिक्त आय ने एक बड़ी भूमिका निभाई. प्रकाश मुंबई में एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत हैं. एक बेटा है और ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं जो उन की आमदनी से पूरी नहीं हो सकती. बावजूद इस के, प्रकाश अपनी पत्नी रितिका को काम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे.

घर में बैठी रितिका देश को क्या दे रही है, यह उन की पहली दलील थी. रितिका ने कमाना शुरू किया तो दोनों ने मिल कर और बड़ा घर ले लिया, मांबाप के बुढ़ापे के लिए पैसे भिजवाए और परिवार के सदस्यों की मदद की. इतना ही नहीं, अपने पैंशन प्लान और बुढ़ापे के लिए बेहतर तरीके से निवेश किया.

प्रकाश कहते हैं, ‘‘ऐसे देख लो न कि जो रितिका पिछले साल तक कोई टैक्स नहीं अदा कर रही थी, बाहर जाने से भी कतराती थी, मेड नहीं रखना चाहती थी, खर्च नहीं करना चाहती थी, वही रितिका अब डेढ़ लाख रुपए टैक्स दे रही है. हमारे परिवार की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है. हम ने 2 और लोगों को काम पर रखा है. आखिर ये सब कहां जा रहा है? कहीं न कहीं उस का कमाया हुआ पैसा देश की उन्नति में काम तो दे ही रहा है.’’

एक पीढ़ी पहले तक इन्हीं मध्यवर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए काम तय थे. आमतौर पर घर के सारे काम महिलाएं खुद निबटाया करती थीं. कपड़े धोने से ले कर गेहूं की सफाई और कुटाईपिसाई, कपड़े सिलने और स्वेटर बनाने तक के कामों में इस कदर उलझी होती थीं कि उस से परे कुछ सोचतीं भी तो रसोई राजनीति के बारे में सोचतीं. सुविधाएं बढ़ी हैं, परिवार छोटे होने लगे हैं और सुविधाओं के साथसाथ महिलाओं को अब वक्त मिलने लगा है तो जरूरी है कि उन की रचनात्मकता का बेहतर इस्तेमाल हो.

घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर कुछ भी रचनात्मक करने से न सिर्फ उन की और परिवार की स्थिति में सुधार होगा बल्कि देश और समाज पर उस का स्पष्ट असर दिखाई देगा. अधिक से अधिक महिलाएं नीतिनिर्माण और नेतृत्व की दिशा में शामिल हो पाएंगी और समाज में बराबरी का उन का सपना मुमकिन हो पाएगा.

खुद को बचाए रखने और बेहतर उपयोग में आने की समझ ने भी कई महिलाओं को न सिर्फ अपने बल्कि अपने देशों के लिए भी उन्नति के मार्ग प्रशस्त किए हैं. कई विकसित देश इस की मिसाल हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में महिलाओं की कुल खरीद शक्ति (परचेजिंग पावर) 3.3 ट्रिलियन डौलर यानी 176 खरब रुपए है. निवेश के मामले में भी वहां की महिलाएं पीछे नहीं. तकरीबन आधे स्टौक्स में महिलाएं ही निवेश करती हैं. अमेरिका के कुल

35 प्रतिशत बिजनैस की मालकिन भी महिलाएं ही हैं. उन्होंने 2.7 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरियां भी दे रखी हैं. अतिशयोक्ति न होगी अगर हम कहें कि अमेरिका को सुपरपावर बनाने में वहां की महिलाओं का बड़ा हाथ है.

शिक्षा और हुनर बड़े हथियार

भारत जैसे देश में सोच में आया यह बदलाव सालों की जद्दोजेहद का नतीजा है. सालों पहले सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले, सरला राय और आर एस सुब्बालक्ष्मी ने भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए जो मुहिम चलाई उस की सफलता अब सामने आ रही है. उन की कोशिशों का असर है कि हम उस समाज के नागरिक हैं जहां बेटियों पर भी वक्त और पैसे का निवेश किया जा रहा है. हालांकि महिलाओं के वर्कफोर्स का सक्रिय हिस्सा होने के लिहाज से अभी भी हमें एक लंबा सफर तय करना है.

10-15 साल पहले तक यह चलन आम था कि बेटों को बड़े और महंगे स्कूलों में पढ़ाया जाए और बेटियों को किसी तरह ग्रेजुएशन करा दी जाए. पढ़ाई इतनी ही कराई जाती थी कि उन की भले घरों के लड़कों के साथ शादी हो जाए. अब यह चलन भी बदला है. लड़कों और लड़कों के घर वालों की ओर से पढ़ीलिखी और कामकाजी लड़कियों की मांग होना अब नई बात नहीं.

आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके बेटे के लिए रिश्ता खोजने निकलीं जमशेदपुर की नीलम देवी कहती हैं, ‘‘वह जमाना गया जब आईआईटी के लड़कों के लिए मोटा दहेज ले कर लोग सुंदर सी लड़की ले आते थे. हमें तो पढ़ीलिखी लड़की चाहिए, जो देशविदेश में बेटे के साथ रह सके. बेटे के सपने को साझा करे और जरूरत पड़ने पर उस के काम में हाथ बंटाए. पैसाकौड़ी सबकुछ थोड़े होता है, गुण और विद्या सब से बढ़ कर है.’’

विद्या दी गई तो गुण भी निखरे. 10वीं और 12वीं के नतीजे प्रमाण हैं कि लड़कियों ने साल दर साल अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ लड़कों की बराबरी की बल्कि उन्हें पछाड़ा भी. देशभर में कालेजों और विश्वविद्यालयों के इम्तिहानों में भी लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किए. और तो और यूपीएससी के नतीजों व स्कूली शिक्षा से ले कर ऐंट्रैंस एग्जाम्स और देश की सर्वाधिक प्रतियोगी परीक्षा में भी सफलता हासिल करने की काबिलीयत उन में है.

सरकारी सेवा हो या प्राइवेट नौकरियां, अपनी लगन और मेहनत से तमाम लिंग भेद के बावजूद महिलाओं ने धीरेधीरे अपने लिए जगह बनाई. भारतीय राजस्व सेवा की अधिकारी रही एफ मेन बताती हैं, ‘‘आमतौर पर महिलाओं को फाइनैंस में निपुण नहीं माना जाता. उन्हें अच्छा ऐडमिनिस्ट्रेटर माना जाता है, अच्छा मैनेजर भी, लेकिन आंकड़े और रुपएपैसों का खेल उन्हें समझ में आएगा, इस पर कई बार सवाल उठाए जाते हैं. लेकिन कई महिला अफसरों ने यहां भी अपनी काबिलीयत साबित की है. और तो और, महिला अफसरों ने कई ऐसे मामलों में कड़े कदम उठाए हैं जो सालों से फाइलों की धूल खा रहे थे. महिला अफसर आमतौर पर सच्ची और ईमानदार होती हैं.

गौरतलब है कि महिलाओं की स्थिति को ले कर अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘न्यूजवीक’ ने 2011 में 165 देशों का सर्वे कराया. महिलाओं के सशक्तीकरण की स्थिति को ले कर भारत पड़ोसी देशों नेपाल, बंगलादेश और श्रीलंका से भी पीछे 141वें स्थान पर था. भारत वैश्विक ताकत बनने की राह पर है लेकिन इतनी तरक्की और समाज में आए इतने बदलावों के बावजूद ऐसा भी नहीं कि हम ने ऐसा माहौल तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है जहां महिलाएं पूरी तरह से सशक्त हों.

महिलाओं के सशक्तीकरण की राह उन के आर्थिक स्वावलंबन से खुलती है, लेकिन हम अब भी ऐसे माहौल के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं जहां कार्यक्षेत्र में पुरुष और महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी मिलती हो. गांवों में महिलाओं की स्थिति तो शोचनीय है ही. वे घरों और खेतों में काम करना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं और कई बार सही मजदूरी की मांग भी नहीं करतीं. वहीं, शहरों में, यहां तक कि बड़े दफ्तरों में महिलाओं के लिए एक हितकर माहौल तैयार हो सका है, ऐसा भी नहीं है.

महिलाओं के काम करने के लिहाज से भारत को दुनिया का चौथा सब से खतरनाक देश बताया गया है. कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न और शोषण जैसी समस्याएं भी महिलाओं के लिए अवरोधक बनती हैं. ऊपर से देर तक काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा को ले कर खुद प्रशासन ऊटपटांग सवाल उठाया करता है. इन सारी चुनौतियों के बावजूद महिलाओं ने हार नहीं मानी और घर व बाहर, दोनों मोरचों को बखूबी संभाला है.

इम्तहां अभी और हैं

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर है वहां महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी भी कम है. जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब में मात्र 4.7 फीसदी महिलाएं घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6 फीसदी. जिस दिल्ली को आमतौर पर महिलाओं के काम करने के लिए बाहर निकलने की सब से असुरक्षित जगह माना जाता है वहां मात्र 4.3 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में 5.4 फीसदी जबकि बिहार में 16.3 फीसदी और ओडिशा में 26 फीसदी महिलाएं घर के बाहर नौकरी करने या काम करने के लिए जाती हैं. इस में एक तथ्य जो गौर करने लायक है कि दक्षिण के राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहां पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएं घर के बाहर काम या नौकरी के लिए जाती हैं. तमिलनाडु में यह 39 फीसदी है जबकि आंध्र प्रदेश में 30.5 फीसदी और कर्नाटक में 23.7 फीसदी है.

वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज से भारत दुनिया के सब से पिछड़े देशों में से एक है. जूनियर, मिडिल और सीनियर, तीनों स्तरों पर भारत में महिलाओं के लिए बहुत जगह बनाए जाने की गुंजाइश है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जूनियर से मिडिल लैवल की पोजिशन तक जातेजाते 48.07 फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं. जबकि मिडिल लैवल से सीनियर लैवल तक जातेजाते 29 फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं. कौर्पोरेट जगत में सिर्फ 6 फीसदी महिलाएं ही बोर्ड में शामिल हैं.

अधिकांश महिलाएं दफ्तर में बढ़ती जिम्मेदारियों के साथ काम का बोझ नहीं संभाल पातीं और नौकरी छोड़ देती हैं या अपने कैरियर को ले कर पुरुष की तरह गंभीर नहीं होना चाहतीं. ऐसे में बदलाव के लिए परिवार और समाज के स्तर पर बदलाव लाने होंगे, जहां कामकाजी महिला को सहयोग के लिए कारगर सपोर्ट सिस्टम तैयार किया जा सके और महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के रास्ते प्रशस्त किए जा सकें.

उम्मीद फिर भी है कि परिवार, समाज और देश को अपनी अर्थव्यवस्था की बेहतरी में महिलाओं के योगदान की कीमत समझ में आएगी और उस के लिए शायद पैमाने भी मुकर्रर हो जाएं. लेकिन महिलाओं को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और यह समझना होगा कि सितारों की जगह सिर्फ उन के आंचल में ही नहीं, आसमान में भी है, जिन्हें छू कर आने की काबिलीयत उन में है.

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