8 सितंबर 2025 को ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा की अध्यक्षता में BRICS नेताओं की वर्चुअल बैठक ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया। यह बैठक ऐसे समय हुई जब अमेरिका ने डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई में विकासशील देशों पर नए-नए टैरीफ थोप दिए हैं और वैश्विक व्यापार को अस्थिर बना दिया है। इस माहौल में BRICS की आवाज़ केवल औपचारिक कूटनीति नहीं रही, बल्कि एक ठोस चुनौती के रूप में सामने आई।
ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला का भाषण सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। उन्होंने ट्रंप के कदमों को “टैरिफ ब्लैकमेल” कहा और आरोप लगाया कि अमेरिका आर्थिक नियमों को हथियार बनाकर दबाव डाल रहा है। लूला ने साफ कहा कि BRICS को आपसी व्यापार और वित्तीय सहयोग इतना मजबूत करना होगा कि किसी बाहरी ताकत की एकतरफा नीतियों से कोई देश बंधक न बने। उनके शब्दों ने यह साफ कर दिया कि लातिन अमेरिका अब अमेरिकी दबाव से आज़ाद राह तलाशना चाहता है।
भारत की ओर से प्रधानमंत्री मोदी की जगह विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हिस्सा लिया। जयशंकर का भाषण संतुलित लेकिन बेहद सटीक था। उन्होंने कहा कि दुनिया लगातार संकटों से जूझ रही है, चाहे वह कोरोना का असर हो, यूक्रेन और पश्चिम एशिया के युद्ध हों, या फिर जलवायु आपदाएँ। उनका कहना था कि इन हालातों ने “बहुपक्षीय व्यवस्था को नाकाम” साबित किया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अब ज़रूरी है कि दुनिया खुले, पारदर्शी और न्यायपूर्ण व्यापार नियमों पर टिके। जयशंकर ने चेतावनी दी कि चुनिंदा पाबंदियाँ और संरक्षणवाद सबसे ज्यादा नुकसान ग्लोबल साउथ को पहुँचाता है।
जयशंकर ने व्यापार घाटे पर भी खुलकर बात की और कहा कि भारत के सबसे बड़े घाटे BRICS देशों के साथ हैं। यह एक अप्रत्याशित लेकिन साहसिक टिप्पणी थी, जिससे पता चलता है कि भारत केवल औपचारिकता नहीं निभाना चाहता बल्कि BRICS के भीतर भी संतुलन चाहता है। इसके साथ ही उन्होंने सप्लाई चेन को छोटा और विविध बनाने की वकालत की ताकि कोई भी देश भविष्य में एकतरफा झटकों से बच सके।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने BRICS को “ग्लोबल साउथ की आवाज़” बताया। उन्होंने कहा कि असली वैश्वीकरण सहयोग और साझेदारी पर टिका होना चाहिए, किसी एक देश की मनमानी पर नहीं। शी ने साफ शब्दों में कहा कि “आर्थिक वैश्वीकरण इतिहास की अपरिहार्य दिशा है” और अगर इसमें बाधाएँ आती हैं तो विकासशील देश मिलकर इसका विकल्प बनाएँगे। उन्होंने वैश्विक शासन ढांचे में सुधार की बात की ताकि प्रतिनिधित्व और न्याय सबके लिए समान हो।
मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी ने संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद पर तीखा हमला बोला। उन्होंने इसे “पक्षपाती और जड़” बताया और कहा कि मौजूदा व्यवस्था में दोहरे मानदंड साफ दिखते हैं। अल-सीसी का संदेश यह था कि जब तक संयुक्त राष्ट्र सुधार नहीं होता, तब तक विकासशील देशों को अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी और BRICS जैसे मंच उसका रास्ता खोल सकते हैं।
इन बयानों के बीच एक दिलचस्प संकेत यह भी रहा कि प्रधानमंत्री मोदी खुद बैठक में शामिल नहीं हुए। उनकी जगह जयशंकर को भेजने का मतलब यह माना गया कि भारत अमेरिका से सीधे टकराव से बचना चाहता है, लेकिन साथ ही BRICS के भीतर अपनी सशक्त स्थिति बनाए रखना भी चाहता है। यही भारत की “रणनीतिक स्वायत्तता” की झलक है, जहाँ वह न तो चीन-रूस धड़े में पूरी तरह घुलना चाहता है, न ही अमेरिका के दबाव में आना।
यह बैठक बताती है कि BRICS अब केवल चर्चा का मंच नहीं रहा। स्थानीय मुद्राओं में व्यापार, वैकल्पिक वित्तीय संस्थाएँ और आत्मनिर्भर सप्लाई चेन जैसे विचार धीरे-धीरे एक नई वैश्विक व्यवस्था की नींव रख रहे हैं। 2026 में जब भारत इसकी अध्यक्षता करेगा, तो यह और साफ़ होगा कि BRICS केवल पश्चिमी संस्थाओं का पूरक नहीं, बल्कि उनका विकल्प बनने की ओर बढ़ रहा है।
आज दुनिया जिस मोड़ पर खड़ी है, वहाँ पुराने ढाँचे टूट रहे हैं और नए ढाँचे बन रहे हैं। ट्रंप के टैरीफ युद्ध ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। BRICS की आवाज़ अब यह कह रही है कि ग्लोबल साउथ केवल दर्शक नहीं रहेगा, वह नियम बनाने वाली मेज़ पर अपनी कुर्सी चाहता है। और शायद यह समय अब आ चुका है।
—डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X @shahidsiddiqui