ग़ज़ा की त्रासदी ने सिर्फ़ एक मानवीय संकट को उजागर नहीं किया, बल्कि वैश्विक कूटनीति की दिशा और नैतिकता को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक ओर जहां अमेरिका ने फिलीस्तीनी अथॉरिटी (PA) और PLO अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाए और उन देशों को व्यापारिक चेतावनी दी जो फिलीस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने की सोच रहे हैं, वहीं कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे G7 देश फिलीस्तीन की मान्यता के समर्थन में सामने आ गए हैं। इससे पश्चिमी देशों के बीच गहराते मतभेद अब खुलकर सामने आने लगे हैं।
यह विभाजन केवल नीतिगत नहीं, बल्कि नैतिक और वैचारिक भी है। अमेरिका का कहना है कि फिलीस्तीनी नेतृत्व शांति प्रक्रिया में बाधा बन रहा है और अंतरराष्ट्रीय मंचों (जैसे ICC) का गलत इस्तेमाल कर रहा है। इसके विपरीत, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने स्पष्ट किया कि अगर इज़रायल मानवीय सहायता की अनुमति नहीं देता और वेस्ट बैंक में विस्थापन नहीं रोकता, तो यूके सितंबर तक फिलीस्तीन को मान्यता देगा। फ्रांस पहले ही ऐसी मंशा जाहिर कर चुका है। कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने तो यहां तक कहा कि इज़रायल जानबूझकर मानवीय त्रासदी को बढ़ा रहा है और “दो-राष्ट्र समाधान अब खत्म होने की कगार पर है।”
इज़रायल ने अमेरिका की कार्रवाई को “नैतिक स्पष्टता” करार दिया है और विरोध कर रहे पश्चिमी देशों को “नैतिक भ्रांति” से ग्रस्त बताया है। वहीं फिलीस्तीन में हालात बद से बदतर हो चुके हैं—पिछले कुछ घंटों में ही 91 लोगों की सहायता केंद्रों पर मौत हो गई और अब तक 60,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र ने ग़ज़ा में खाद्य और चिकित्सा आपूर्ति को “न्यूनतम से भी कम” बताया है।
ऐसे वक्त में भारत ने संतुलित रुख अपनाया है। उसने न तो इज़रायल की खुलकर आलोचना की, न ही अमेरिका के रवैये से असहमति जताई। भारत ने मानवीय सहायता के रूप में दवाएं और खाद्य सामग्री भेजी, संयुक्त राष्ट्र में दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन दोहराया, लेकिन उसने कोई सीधी राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं दी। इस “रणनीतिक चुप्पी” को भारत की संतुलित कूटनीति कहा जा सकता है, जो अमेरिका और अरब दुनिया दोनों के साथ संबंधों को संतुलन में रखने की कोशिश है।
मगर यह संतुलन अब और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। BRICS का दायरा अब सऊदी अरब, ईरान, मिस्र जैसे देशों तक बढ़ चुका है। ये देश न केवल फिलीस्तीन के पक्ष में हैं, बल्कि वे पश्चिम की दमनकारी नीतियों के विकल्प के रूप में भारत की ओर देख रहे हैं। भारत यदि केवल “गुटनिरपेक्ष” बना रहता है, तो वह इस नेतृत्व की संभावना को खो सकता है।
दूसरी ओर, अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी, क्वाड जैसी संरचनाओं और व्यापारिक संबंधों के चलते खुलकर टकराव की भी गुंजाइश नहीं है। भारत को यह चुनौती समझनी होगी कि जब पश्चिम और अरब दुनिया दो छोरों पर खड़े हों, तो वह किसे कितना संतुलित कर सकता है, और किस मुद्दे पर उसे नैतिक पक्ष चुनना होगा।
अब सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि भारत किसके साथ खड़ा है, बल्कि यह है कि वह किस तरह से खड़ा है। क्या वह विश्व राजनीति में केवल प्रतिक्रिया देगा, या आगे बढ़कर नैतिक नेतृत्व दिखाएगा? क्या वह Global South की आवाज़ बन सकता है, या अमेरिका की परछाईं में रह जाएगा?
ग़ज़ा की राख में एक अवसर छिपा है, भारत के लिए एक नई नैतिक भू-राजनीति का सूत्रपात करने का। यह वह समय है जब नई दिल्ली को अपनी “रणनीतिक चुप्पी” को “सक्रिय नेतृत्व” में बदलना होगा, वो भी नारेबाज़ी से नहीं, बल्कि एक संगठित, न्याय आधारित कूटनीतिक विमर्श के माध्यम से।
भारत अब दोराहे पर है, ग़ज़ा की त्रासदी में दुनिया की आंखें भारत की राह देख रही हैं।
-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X @shahidsiddiqui.