
चुनाव की प्रक्रिया खासतौर पर भारत जैसे बड़े देश में बेहद ही महंगी है. चुनावी अभियान, लंबी-लंबी यात्राएं, वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह के पैंतरे इन सब की वजह से भारी खर्च होता है. इसकी वजह से इकनॉमी में एक झटके में बहुत सारा पैसा आता है, पैसा आने की वजह से बाजार में भारी डिमांड बढ़ती है और इकनॉमिक एक्टिविटी बढ़ जाती है. जिससे जीडीपी के आंकड़ों में तेजी देखने को मिलती है.
लेकिन आर्थिक मंदी इतनी मजबूत थी कि लेकिन इस बार के चुनाव के बाद इकनॉमिक ग्रोथ पर ये गणित नहीं चला.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक 2019 के चुनाव में करीब 55,000 करोड़ मतलब 8 बिलियन डॉलर रुपये खर्च किए गए. ये अब तक का सबसे महंगा चुनाव रहा है.
2019 समेत पिछले 5 सालों के चुनावों के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि इलेक्शन ईयर में इकनॉमिक ग्रोथ में तेजी देखने को मिलती है. ज्यादातर लोकसभा चुनाव अप्रैल मई के महीने में होते हैं, इसलिए जून तिमाही में तेजी देखने को मिलती है.
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद अप्रैल-जून 2015 में ग्रोथ 5.3 परसेंट से छलांग मारकर 8 परसेंट हो गई थी. वहीं 2009 चुनाव के वक्त ग्रोथ रेट 3.5 से छलंगा मारकर 5.9 परसेंट हो गई थी.
इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के चीफ इकनॉमिस्ट देवेन्द्र पंत का कहना है –
जिस तरह से हर बार के चुनाव के बाद ग्रोथ पर पॉजिटिव असर देखने को मिलता है वो इस बार नदारद था. इसकी वजह ये भी हो सकती है कि पहले चुनाव में जमीनी स्तर पर जाकर खर्च करना होता था, लेकिन अब चुनाव डिजिटल माध्यम से लड़े जाते हैं. इस वजह से इकनॉमी पर खास असर न पड़ा हो.
हालांकि इस दौर में सरकारी खर्चों में अच्छी ग्रोथ देखने को मिली है. इस वजह से ग्रोथ को हल्का सपोर्ट देखने को मिला. FY20 की पहली तिमाही में सरकार का कंज्म्पशन खर्च 11.8 परसेंट की दर से बढ़ा. जबकि पिछले फाइनेंशियल ईयर की आखिरी तिमाही में ये 9.9 परसेंट था.