दो साल की राख में ज़िंदा उम्मीद: गाज़ा अब भी देख रहा है शांति का सपना !

7 अक्टूबर के उस हमले को दो साल हो गए हैं जिसने गाज़ा को बर्बादी, खून और दर्द की एक अंतहीन कहानी में बदल दिया। यह वही दिन था जब हमास के हमले ने इसराइल को झकझोर दिया और जवाब में शुरू हुई जंग ने गाज़ा की धरती को खंडहरों में बदल दिया। दो साल बीत चुके हैं, पर जंग अब भी जारी है और इस विनाश के बीच, गाज़ा के लोग अब भी उम्मीद की छोटी-सी लौ जलाए हुए हैं।

आज गाज़ा की गलियों में हर तरफ़ तबाही का मंजर है। मलबे में तब्दील घर, खाली स्कूल, और अस्पतालों में दवाइयों की कमी सब कुछ इस बात की गवाही देते हैं कि यह सिर्फ़ एक राजनीतिक टकराव नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी है। दो साल में 67,000 से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे गए, लाखों लोग बेघर हुए, और बच्चे अब भी टेंटों में जी रहे हैं। फिर भी, लोगों में यह विश्वास जिंदा है कि एक दिन यह दर्द खत्म होगा।

इसी माहौल में, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने फिर से एक “गाज़ा डील” की पहल की है। इस योजना के तहत लड़ाई को खत्म करने, बचे हुए बंधकों की रिहाई और गाज़ा में मानवीय सहायता पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। ट्रंप ने कहा है कि “मध्य-पूर्व में अब शांति की उम्मीद पहले से कहीं ज़्यादा है।” लेकिन क्या यह वाकई संभव है? क्या इतनी गहरी नफ़रत और तबाही के बाद दोनों पक्ष एक मेज़ पर टिक पाएंगे?

हमास ने साफ़ कहा है कि वह किसी भी शांति समझौते पर तभी तैयार होगा जब इसराइल पूरी तरह गाज़ा से हटे, स्थायी युद्धविराम घोषित किया जाए और पुनर्निर्माण का काम एक फ़िलिस्तीनी “राष्ट्रीय तकनीकी निकाय” की देखरेख में हो। लेकिन इसराइल की अपनी शर्तें हैं, वह हमास के हथियार छोड़ने और उसकी राजनीतिक भूमिका खत्म करने की मांग करता है। इन शर्तों के बीच कोई मध्य रास्ता फिलहाल नज़र नहीं आता।

हमास के वरिष्ठ नेता फ़व्ज़ी बरहूम ने कहा है, “हम कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा समझौता हो जो गाज़ा के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरे।” लेकिन गाज़ा के लोगों की असली उम्मीद बहुत सरल है, एक ऐसा जीवन जिसमें डर न हो, घरों में रोशनी हो और बच्चे फिर से स्कूल जा सकें। खान यूनिस के 49 वर्षीय मोहम्मद दिब कहते हैं, “दो साल हो गए डर और विस्थापन में जीते हुए। अब बस शांति चाहिए, ताकि बच्चे फिर से सामान्य ज़िंदगी जी सकें।”

कल शर्म अल-शेख, मिस्र में होने वाली बैठक पर दुनिया की नज़रें टिकी हैं। इस बैठक में क़तर के प्रधानमंत्री, तुर्की के खुफ़िया प्रमुख, जेरेड कुश्नर और स्टीवन विटकॉफ़ जैसे प्रमुख लोग शामिल होंगे। यह उपस्थिति साफ़ संकेत देती है कि अब अंतरराष्ट्रीय दबाव सीधे हमास पर बढ़ेगा ताकि वह किसी समझौते की दिशा में आगे बढ़े। लेकिन इतिहास गवाह है कि गाज़ा की हर शांति कोशिश ने एक कठिन मोड़ पर जाकर रुक जाना सीखा है।

इसराइल के भीतर भी यह दिन गहरे घावों को फिर से ताज़ा कर गया है। 7 अक्टूबर 2023 को नोवा म्यूज़िक फ़ेस्टिवल में मारे गए युवाओं को याद करते हुए कई परिवार इकट्ठा हुए। ओरित बारोन अपनी बेटी और उसके मंगेतर की तस्वीर के पास खड़ी थीं। वे दोनों शादी की तैयारी कर रहे थे, लेकिन उसी हमले में मारे गए। बारोन ने कहा, “दोनों को साथ पाया गया था, इसलिए हमने उनका अंतिम संस्कार भी साथ किया।” उनके शब्द हर उस माँ की आवाज़ हैं जिसने अपने बच्चे को इस हिंसा में खोया है।

दूसरी ओर, गाज़ा में लोग अब भी विस्थापन, भूख और डर के बीच ज़िंदा हैं। बिजली, पानी, और दवाइयाँ लगभग खत्म हैं। बच्चे मलबे के बीच खेलते हैं, और महिलाएँ हर दिन अपने परिवार के लिए खाना जुटाने की जद्दोजहद करती हैं। फिर भी, एक नर्स रफ़ा से कहती है, “हमारे सिर पर बम गिरते हैं, लेकिन दिल में अब भी उम्मीद बाकी है।” यही उम्मीद आज गाज़ा की सबसे बड़ी पूंजी है।

इसराइल और हमास दोनों ट्रंप की इस योजना के मूल ढांचे से सहमत हैं यानी युद्धविराम, बंधकों की रिहाई, और मानवीय सहायता का रास्ता खोलना। लेकिन असली चुनौती यह है कि कौन गाज़ा का भविष्य तय करेगा, कौन इसे पुनर्निर्माण के लिए धन देगा, और कौन यह सुनिश्चित करेगा कि शांति स्थायी रहे। ट्रंप और नेतन्याहू दोनों हमास को किसी राजनीतिक भूमिका में नहीं देखना चाहते, पर क्या गाज़ा में हमास को नज़रअंदाज़ करके कोई नई व्यवस्था टिक पाएगी?

इस जंग ने सिर्फ़ शहरों को नहीं, बल्कि इंसानियत की संवेदनाओं को भी तोड़ दिया है। यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में इसराइल की कार्रवाई के खिलाफ प्रदर्शन हुए, वहीं कई पश्चिमी नेता अब भी राजनीतिक बयानबाज़ी में उलझे हैं। लेकिन गाज़ा और इसराइल दोनों की आम जनता अब सिर्फ़ एक चीज़ चाहती है – शांति।

सवाल यह नहीं कि अगला समझौता कब होगा, बल्कि यह है कि क्या दोनों पक्ष अब भी इंसानियत की भाषा समझने को तैयार हैं। दो साल की जंग ने बहुत कुछ छीन लिया है, लेकिन अगर कुछ बाकी है, तो वह है उम्मीद। गाज़ा के बच्चे जो टेंटों में बैठकर अल्फ़ाबेट सीख रहे हैं, वही आने वाले कल की असली ताकत हैं।

गाज़ा आज भी राख में ज़िंदा है और शायद यही उसकी सबसे बड़ी जीत है। क्योंकि जंग हर चीज़ मिटा सकती है, पर उम्मीद नहीं।

-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X  @shahidsiddiqui

 

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