एक संकट हमारी आंखों के सामने आकार ले रहा है, जिसमें ग़ज़ा की मानवीय त्रासदी गहराती जा रही है और पश्चिमी देशों के बीच इस मुद्दे पर गहरी फूट सामने आ रही है। हाल ही में अमेरिका ने फिलीस्तीनी अथॉरिटी (PA) और PLO अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाए हैं, जबकि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उन देशों को व्यापारिक धमकियाँ दी हैं जो फिलीस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने का समर्थन कर रहे हैं—ये केवल नीति परिवर्तन नहीं, बल्कि पश्चिम की सोच में एक मौलिक विभाजन की पृष्ठभूमि हैं।
यह विभाजन G7 देशों में विशेष रूप से स्पष्ट है। जहां ये देश यूक्रेन संकट पर एकजुट रहे, वहीं अब फिलीस्तीन को लेकर उन्हें मतभेदों ने बांट दिया है। कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन सितंबर में संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन को मान्यता देने की योजना बना रहे हैं, जो ग़ज़ा की बिगड़ती मानवीय स्थिति की प्रतिक्रिया है, न कि फिलीस्तीनी कूटनीति में विश्वास की निशानी। इसके उलट, अमेरिका ने अपने कड़े प्रतिबंधों और आर्थिक दंड की नीति को दोहराया है, जिससे राजनयिक तनाव और गहराया है।
वाशिंगटन ने कुछ ऐसा ही रुख अपनाया – अमेरिकी विदेश विभाग ने PA और PLO अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाए, यह आरोप लगाकर कि वे शांति प्रक्रिया में बाधा डाल रहे हैं और ICC जैसे मंचों के माध्यम से संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय बना रहे हैं। डिप्टी प्रवक्ता टोममी पिगॉट ने इसे “नियमित, द्विआवार्षिक समीक्षा” बताया, पर इसका समय और स्वर कुछ और ही संकेत दे रहा है, यह अमेरिका की फिलीस्तीन राजनयिक गतिविधियों पर एक कट्टर रुख दर्शाता है। इस बीच ट्रंप ने कनाडा की धमकी दी कि अगर वह फिलीस्तीन को मान्यता देगा तो उसके साथ व्यापार समझौता मुश्किल हो जाएगा, और 35% टैरिफ लग सकता है।
इजरायल ने अमेरिका का यह रुख “नैतिक स्पष्टता” कहते हुए स्वीकार किया, जबकि उन देशों पर आरोप लगाया कि वे “नैतिक भ्रांति” कर रहे हैं जिनकी नजरें फिलीस्तीन के “वर्चुअल राज्य” पर टिक गई हैं। इजरायल सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक हमास ग़ज़ा में है, संघर्ष जारी रहेगा और PA की भूमिका संभव नहीं।
इसी बीच, G7 सहयोगियों- कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन ने वाशिंगटन से हटकर रुख अपनाया है। कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने साफ कहा कि “इजरायल ने ग़ज़ा में जारी मानवीय त्रासदी को जानबूझकर बढ़ने दिया है,” और चेतावनी दी कि “दो-राष्ट्र समाधान अब आंखों के सामने खत्म हो रहा है।” ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने घोषणा की कि यूके सितंबर तक फिलीस्तीन को मान्यता दे देगा, अगर इजरायल युद्ध विराम व्यवस्था, व्यापक मानवतावादिक सहायता और पश्चिमी बैंक में विस्थापन रोकने की दिशा में स्पष्ट कदम नहीं उठाता; उन्होंने चार स्पष्ट शर्तों का जिक्र किया।
ब्रिटिश संसद में भी यह पहल मजबूत हुई है। हालांकि 2014 का प्रस्ताव गैर-बाध्यकारी था, लेकिन अब स्टार्मर की सरकार उसे आधिकारिक रूप से लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। ऐसे में यह बदलाव G7 के राजनीतिक प्रतिबद्धता में महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक बन गया है। फ्रांस भी जुलाई में मान्यता देने की घोषणा कर चुका है, जिससे ब्रिटेन और कनाडा के साथ समन्वय बढ़ा है।
इन सब के बीच आम जनता के सामने ग़ज़ा की हकीकत बेहद भयावह है।
हालिया आंकड़ों के मुताबिक पिछले २४ घंटों में ९१ लोग सहायता लेने के दौरान मारे गए, जबकि सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि अब तक ६०,००० से अधिक फिलीस्तीनी मारे जा चुके हैं। सहायता केंद्रों पर भीड़ में १,३७३ लोग सहायता मांगते-संभलते मरे, अधिकांश को गोली लगी। संयुक्त राष्ट्र ने मानवीय संगठनों की सहायता को “बहुत कम” बताया है और निर्दिष्ट किया कि भोजन और दवा की आपूर्ति पेट भरने के लिए काफी नहीं है। ग़ज़ा में भूख अब धोखाधड़ी नहीं, रोजमर्रा का खौफ़ बन गई है।
इस तनावपूर्ण पृष्ठभूमि में, अमेरिकी विशेष दूत स्टीव विटकॉफ़ इस संकट को देखते हुए इजरायल और ग़ज़ा का दौरा कर रहे हैं ताकि युद्धविराम वार्ता को पुनर्जीवित किया जा सके और सहायता वितरण की जांच की जा सके। उन्होंने प्रधानमंत्री नेतन्याहू से भी बैठक की और संयुक्त रूप से राहत प्रयासों की रणनीति बनाने का संकल्प लिया है।
अब दृश्य स्पष्ट हो रही है कि G7 सांसदों द्वारा फिलीस्तीनी राज्य की सामूहिक मान्यता एक प्रतीकात्मक बदलाव नहीं, बल्कि एक राजनीतिक बयानबन चुकी है, जो आगे आर्थिक और कानूनी दबाव में बदल सकती है। यूरोपीय यूरोब्लॉक के आलोचकवर्ग मानते हैं कि यदि मान्यता आर्थिक और कानूनी कार्रवाई के साथ संयोजित होती है, तो यह इज़राइल के घरेलू समर्थन को चुनौती दे सकती है।
इस तनावपूर्ण विदेश नीति परिदृश्य में जो बात सामने आती है, वह यह कि अमेरिका का रुख- वीज़ा प्रतिबंध, व्यापार धमकी, मान्यता विरोध, पूरे पश्चिमी गठबंधन में फूट को और बढ़ा रहा है, जबकि यूरोप की नई मान्यता नीति अमेरिकी साख को कमज़ोर कर रही है। इजरायल की वैश्विक अलगाव, पश्चिमी नैतिकता का पुनर्मूल्यांकन, और वैश्विक सामर्थ्य संतुलन में बदलाव, इन सभी का संकेत मिलता है।
समाप्त में कह सकते हैं कि ग़ज़ा की सड़कों से लेकर वैश्विक राजधानियों तक, यह केवल एक मानवीय संकट नहीं, यह पश्चिम के भीतर एक नैतिक और रणनीतिक विभाजन की कहानी है। भूखें मरनी अब किसी दुर्घटना नहीं, बल्कि एक रणनीति बन चुकी है। मान्यता कोई दया नहीं, राजनीतिक बयान है। व्यापार अब दंड का हथियार बन गया है। और इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाएंगे आम लोग—ग़ज़ा के बच्चे, बंधकों की मांएं, और बमबारी की लकीर के बीच फंसे परिवार।
पल-पल बदलती दुनिया में अब असली सवाल यह है: यह विभाजन कितना गहरा होगा… और इसकी कीमत कौन चुकाएगा।
–डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X @shahidsiddiqui