उन दिनों की बात है जब मैं समझता था की चिट्ठी-पत्री से ज्यादा कुछ लिखना मेरे वस की बात नहीं है।ऐसा कुछ जो छपने लायक हो, मैं भी लिख सकता हूँ, इसका ख्याल तो सपने में भी नहीं था। पढ़ाई-लिखाई मेरी तेरह-बाइस है।जैसे-तैसे मैट्रिक पास करने के बाद बी ए तक पहुँचने में छ-सात वर्ष लगाने के बाद भी मैं उस चौखट को लाँघ नहीं पाया था। ऐसे में, ऐसा लिखना जो छापा जा सके, यह मेरे सपने में भी नही था।
बाद में थोड़ा-बहुत लिख लेने का जो साहस पैदा हुआ उसका श्रेय अशोक सेकसरिया जी को जाता है।अशोक जी से कैसे और कब मुलाकात हुई, पहली मुलाकात की वितृष्णा कैसे आदर में बदल गयी, इसको मैं कभी अलग से लिखूंगा। यह उन दिनों की बात है जब मैं लोहिया विचार मंच का कार्यकर्ता था।कलकता मंच का महत्वपूर्ण केंद्र था।वहीं से ‘ चौरंगी वार्ता ‘ नाम से पाक्षिक पत्रिका निकला करती थी।स्व. रमेश ( चन्द्र सिंह ) जी सम्पादक थे। कलकता में ही किसी कालेज में हिंदी के शिक्षक थे।बहुत साफ समझ वाले, अत्यंत भद्र व्यक्ति थे रमेश जी। अशोक जी उस पत्रिका की रीढ़ की तरह उसके नेपथ्य में थे।
74 का आन्दोलन शुरू हो चूका था।मैं उस आन्दोलन में सक्रिय हो गया था। एक ढंग से चौरंगी वार्ता जेपी आंदोलन की वैचारिक पत्रिका बन गई थी। स्वंय जेपी उसके नियमित पाठक थे। चौहत्तर आंदोलन के उपरांत ‘चौरंगी वार्ता’ के ही नींव पर पटना से किशनजी के संपादन में 77 से ‘सामयिक वार्ता’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। अशोक जी ने मुझे वार्ता में लिखने के लिए प्रेरित करना शुरू किया।उनके बार-बार खोदने और सलाह के बाद 74 आंदोलन का कुछ रिपोर्ताज मैंने लिखना शुरू किया। पाठकों ने पसंद किया। उनमें से एक रिपोर्ताज की याद आज भी है। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में हूँ जिनको उन लोगों के साथ काम करने का अवसर मिला है। अद्भुत लोग थे,आपस में स्नेह और आदर का जैसा उनका संबंध था, आज के माहौल में उसकी कल्पना करना मुश्किल है।
आंदोलन के दरम्यान भभुआ कई बार आना-जाना हुआ करता था।भभुआ बनारस से सटा हुआ है। वहाँ के ज्यादातर नौजवान बनारस में और विशेष रूप से बी.एच.यू.के विद्यार्थी थे। बी.एच.यू.राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक विश्वविद्यालय था। अत: भभुआ में आन्दोलन का नेत्रीत्व बहुत सचेत और जागरूक था। वहाँ आन्दोलन काफी सक्रिय और नीचे तक यानि गाँव तक फ़ैल गया था। नौजवानों में गजब का जनून था।आंदोलन के काम के चलते कई लोग दिनों तक घर से गायब रहा करते थे।स्वभाविक था, उनके अभिवावकों में चिंता रहती थी। लड़के कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं। पुलिस ने पकड़ लिया, मुकदमा हो गया, जेल चले गये तो उनके भविष्य का क्या होगा ? इसी तरह की चिंता वाले एक अभिवावक के घर का लड़का चार-पांच दिनों की गैरहाजिरी के बाद घर आया। फिर क्या था ! बाप ने बेटे की जुते से भरपेट पिटाई कर दी। घटना की जानकारी उसके आंदोलनकारी साथियों को मिली।साथी आक्रोशित हो गये। देश को बदलने के लिए, सम्पूर्ण क्रांति के लिऐ हमलोग संघर्ष कर रहे हैं। एक ओर हम पुलिस की लाठी-गोली का सामना कर रहे हैं।अपनी कुर्बानी के लिए तैयार हैं। दूसरी ओर इस संघर्ष की महत्ता नहीं समझने वाले अभिवावकों की पिटाई भी खानी पड़ रही है।यह तो हद है।
पिटाई के बाद घर में कैद उस नौजवान के साथियों ने तय किया कि इसका प्रतिकार होना चाहिए। बैठक हुई। तय हुआ कि साथी के गाँव चला जाय और उसके दरवाजे पर विरोध किया जाय। नौजवानों का जत्था पहुँच गया अपने उस साथी के दरवाजे पर। नारेबाजी शुरू हो गई ! बाप का जूता बेटे के सर पर–नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।
यह अपने तरह की अनोखी घटना थी। इससे आन्दोलन की गहराई और उसकी व्यापकता की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही नौजवान आन्दोलनकारियों की समझ, एकजुटता और उनके जज्बे का पता भी चलता है। इस घटना को मैंने चौरंगी वार्ता में लिखा। वार्ता आन्दोलन की पत्रिका तो बन ही गई थी।जयप्रकाश जी के यहाँ भी वार्ता नियमित जाती थी। वे उसको देखा करते थे। मेरे उस रिपोर्ट को उन्होंने पढ़ा था। उसके बाद जब मैं उनके सामने पड़ा तो उन्होंने मुझसे भोजपुरी में ही पूछा–‘ का शिवानन्द, ई- साचों के घटना ह !’ जब मैंने उनको बताया की यह घटना सच्ची है तो उनके चेहरे जो मुदित मुस्कान उभरी उसको इतने दिनों बाद भी मैं नहीं भूल चूका हूँ।
लेखक- शिवानन्द तिवारी, पूर्व सांसद