नेपाल की सियासी जंग और दक्षिण एशिया पर असर

काठमांडू: नेपाल की सियासत में अचानक बड़ा बदलाव आ गया है। प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने इस्तीफ़ा दिया, पूर्व चीफ़ जस्टिस सुशीला कर्की को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया और राष्ट्रपति ने संसद भंग कर 5 मार्च 2026 को चुनाव कराने का एलान कर दिया। ये घटनाएँ सिर्फ़ नेतृत्व बदलने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के गुस्से और दक्षिण एशिया में नए भू-राजनीतिक समीकरणों की तरफ़ इशारा करती हैं।

सब कुछ तब शुरू हुआ जब सोशल मीडिया पर बैन लगाया गया। यह फ़ैसला तुरंत ही युवा वर्ग, ख़ासकर “Gen Z” पीढ़ी को भड़का गया। सड़कों पर उतरे युवाओं ने भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और बेरोज़गारी के खिलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ उठाई। उनकी नाराज़गी ने राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को झुकने पर मजबूर किया। दो दिन तक चली कड़ी बातचीत के बाद कर्की को अंतरिम पीएम बनाया गया, ताकि हालात काबू में आएं और चुनाव तक देश को स्थिरता मिल सके।

भारत के लिए ये हालात बहुत नाज़ुक हैं। नई दिल्ली ने तुरंत इस व्यवस्था का समर्थन किया, क्योंकि नेपाल की स्थिरता भारत की सीमा सुरक्षा, जलविद्युत परियोजनाओं और पहाड़ी बुनियादी ढाँचे से जुड़ी है। भारत नहीं चाहता कि नेपाल की उथल-पुथल का असर सीमाओं पर असुरक्षा या कूटनीतिक खिंचाव के रूप में दिखे।

चीन भी बारीकी से नज़र रख रहा है। नेपाल चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजनाओं का अहम हिस्सा है। अस्थिरता चीन की निवेश योजनाओं और बुनियादी ढाँचा प्रोजेक्ट्स को सीधे प्रभावित कर सकती है। बीजिंग खुलकर हस्तक्षेप से बचेगा, लेकिन आर्थिक मदद और राजनीतिक संपर्कों के ज़रिए असर बनाए रखने की कोशिश ज़रूर करेगा।

यह सिर्फ़ नेपाल की कहानी नहीं है। हाल के सालों में दक्षिण एशिया के कई देशों में युवा आंदोलनों ने सत्ता पलट दी है। 2022 में श्रीलंका में आर्थिक संकट से उपजा जनविरोध राजपक्षे परिवार की सत्ता बहा ले गया। पाकिस्तान में भी सियासत सड़कों पर तय होती रही है। बांग्लादेश में छात्रों और युवाओं के आंदोलन ने सरकार को चुनौती दी है। लेकिन एक सीख साफ़ है, आंदोलन सरकारें गिरा सकते हैं, लेकिन असली सुधार तभी आते हैं जब संस्थाएँ मज़बूत हों।

नेपाल की अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से ये संकट और भी ख़तरनाक है। देश पहले से ही विदेशों में काम करने वाले मज़दूरों की कमाई (रेमिटेंस) पर निर्भर है, रोज़गार के मौके बेहद सीमित हैं और उद्योग बहुत छोटा है। ऐसे में अगर नई सरकार रोज़गार, निवेश और भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाती तो ये आंदोलन फिर भड़क सकता है।

क्षेत्रीय स्तर पर भी इसका असर होगा। भारत और चीन दोनों को बहुत सावधानी से अपने हित साधने होंगे, ताकि वे दखलअंदाज़ न लगें। युवाओं की राजनीति बढ़ने से अब छात्रवृत्ति, ट्रेनिंग और विकास प्रोजेक्ट्स “दिल जीतने” का नया साधन बन सकते हैं। साथ ही पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका की सरकारें भी डरेंगी कि कहीं नेपाल जैसा आंदोलन उनके यहाँ दोहराया न जाए।

नेपाल का संदेश साफ़ है, पुरानी राजनीति और भ्रष्ट तंत्र अब युवा पीढ़ी के गुस्से को नहीं झेल सकते। यह पीढ़ी डिजिटल है, संगठित है और अपनी बात मनवाने के लिए सड़कों पर उतरने से नहीं हिचकेगी। अब देखना है कि नेपाल इस ऊर्जा को स्थायी सुधार में बदल पाता है या नहीं।

एक बात तय है, नेपाल की नई पीढ़ी ने बता दिया है कि असली शक्ति अब जनता के हाथ में है, और दुनिया को उनकी आवाज़ सुननी ही होगी!

-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X  @shahidsiddiqui

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