जब युद्ध पर राजनीति भारी पड़ गई: अलास्का की अधूरी वार्ता

एंकोरेज (अलास्का) में डोनाल्ड ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन की मुलाक़ात को “ऐतिहासिक” बताया गया, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। दुनिया को उम्मीद थी कि यह बैठक यूक्रेन युद्ध में किसी मोड़ की ओर इशारा करेगी, लेकिन अंत में रह गया सिर्फ़ दिखावा—फौजी विमानों की गड़गड़ाहट, राष्ट्रपति की शानदार गाड़ी “द बीस्ट” और मुस्कुराते चेहरे। यह घटना एक बार फिर साबित करती है कि आज की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में चमक-दमक अक्सर वास्तविक संकटों और असली पीड़ितों पर परदा डाल देती है। इस बैठक से सबसे बड़ा लाभ पुतिन को मिला। संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रोटोकॉल तोड़कर पहले बोलते हुए उन्होंने न केवल वार्ता की दिशा तय की, बल्कि खुद को पश्चिमी मंच पर पुनः स्थापित भी कर लिया। द्वितीय विश्व युद्ध की साझेदारी और रूस-अलास्का के रिश्तों का हवाला देकर उन्होंने यह संदेश दिया कि रूस को नज़रअंदाज़ करना अब संभव नहीं है। 2022 के आक्रमण के बाद पश्चिम ने रूस को अलग-थलग करने की कोशिश की थी, लेकिन अलास्का में यह प्रयास कमजोर पड़ता दिखा।

ट्रंप के लिए यह मंच दोधारी साबित हुआ। उन्होंने पुतिन की प्रशंसा तो की, लेकिन यूक्रेन पर जारी हमलों का उल्लेख तक नहीं किया। अमेरिकी मीडिया और विश्लेषकों ने तुरंत नोट किया कि ट्रंप की बातें अधिकतर घरेलू राजनीति पर केंद्रित थीं। उन्होंने एक बार फिर 2016 और 2020 के चुनावों में धांधली के आरोप दोहराए और बाइडन की जीत पर सवाल उठाए। यह रुख पुतिन के नैरेटिव से मेल खाता था और इससे यह संदेह गहरा हुआ कि क्या अमेरिका का अगला नेतृत्व मास्को के हितों के और करीब आ रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे हाशिए पर रहा यूक्रेन। राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को इस बैठक में बुलाया ही नहीं गया। ट्रंप ने बस इतना कहा कि वह उन्हें “जल्द फ़ोन करेंगे।” यह व्यवहार एक चेतावनी है कि अमेरिका का समर्थन अब बिना शर्त नहीं है। यह संदेश कीव के लिए बेहद खतरनाक है, अमेरिका अब मदद को सौदेबाज़ी का हिस्सा बना सकता है।

युद्धभूमि पर भी तस्वीर स्पष्ट है। अलास्का में हाथ मिल रहे थे, तो उसी समय रूस ने पूर्वी यूक्रेन में हमले और तेज़ कर दिए। पुतिन की रणनीति यह है कि समय को हथियार बनाया जाए। हर बीतता दिन पश्चिम की एकजुटता को कमज़ोर करता है और रूस की सौदेबाज़ी की ताक़त बढ़ाता है। आँकड़े बताते हैं कि अब तक अमेरिका ने यूक्रेन को 174 अरब डॉलर से अधिक की सहायता दी है, यूरोप गोला-बारूद उत्पादन को दोगुना करने की राह पर है और 2024 में वैश्विक सैन्य खर्च रिकॉर्ड 2.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। फिर भी नतीजा यही है कि युद्ध लंबा खिंचने पर रूस की स्थिति और मज़बूत होती जा रही है। मानवीय और आर्थिक दबाव भी कम नहीं। यूक्रेन की GDP वृद्धि 2025 में महज़ 2% रहने का अनुमान है जबकि मुद्रास्फीति 12% से ऊपर है। लगभग 7 मिलियन शरणार्थी और 3.7 मिलियन आंतरिक विस्थापित देश के सामाजिक ढांचे को कमजोर कर रहे हैं। रूस भी अपने स्तर पर संघर्ष कर रहा है—IMF के मुताबिक 2025 में उसकी वृद्धि 0.9% रह सकती है। फिर भी ऊर्जा निर्यात को एशिया की तरफ़ मोड़कर उसने फिलहाल अपनी अर्थव्यवस्था को टिकाए रखा है।

इस बैठक से बड़ा संदेश यही है कि वैश्विक राजनीति बदल रही है। अमेरिका की कूटनीति अब मूल्य-आधारित से हटकर हित-आधारित होती जा रही है। लोकतंत्र और न्याय की जगह अब शक्ति-संतुलन और घरेलू राजनीति अहम हो रहे हैं। यूरोप रूसी ऊर्जा से दूरी बनाते हुए सैन्य तैयारी पर ज़ोर दे रहा है। दुनिया शांति की तस्वीरें देख रही है, लेकिन वास्तविकता हथियारों की दौड़ और शक्ति की राजनीति है। अलास्का वार्ता को इतिहास शायद किसी उपलब्धि के लिए याद न रखे। इसे उस मोड़ के रूप में देखा जाएगा जब अमेरिका और रूस की कूटनीति एक राजनीतिक प्रदर्शन बन गई, और युद्ध का असली पीड़ित—यूक्रेन—किनारे कर दिया गया। यह वार्ता बताती है कि आने वाले वर्षों में वैश्विक राजनीति और भी अनिश्चित, असंतुलित और शक्ति-आधारित होगी। दिखावे के पीछे की सच्चाई यही है कि समय ही इस युद्ध का सबसे बड़ा हथियार है—और फिलहाल यह हथियार पुतिन के हाथ में है।

इस शिखर वार्ता के परिणाम सिर्फ़ अमेरिका, रूस और यूक्रेन तक सीमित नहीं हैं। भारत और ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) पर इसके गहरे असर पड़ सकते हैं। भारत की ऊर्जा सुरक्षा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है। रूस से रियायती तेल आयात करने में अब तक भारत को बड़ी राहत मिली है। यदि अमेरिका-रूस समीकरण बदलते हैं और रूस पर दबाव घटता है, तो भारत को और सस्ती ऊर्जा मिल सकती है। लेकिन दूसरी तरफ़, पश्चिमी प्रतिबंध ढीले पड़ने पर यह छूट कम हो सकती है। हथियारों की राजनीति भी अहम है। भारत अभी भी अपने रक्षा उपकरणों का लगभग 60% रूस से प्राप्त करता है। यदि रूस और अमेरिका के बीच संबंधों में नया समीकरण बनता है, तो भारत को संतुलन साधने में मुश्किलें बढ़ सकती हैं। कूटनीतिक रूप से भारत के लिए सबसे कठिन चुनौती यह है कि वह रूस के साथ पारंपरिक संबंध बनाए रखते हुए अमेरिका और यूरोप के साथ बढ़ते रणनीतिक रिश्तों को संतुलित करे।

यूक्रेन युद्ध ने खाद्य सुरक्षा को बुरी तरह प्रभावित किया है। अफ्रीका और एशिया के गरीब देशों को गेहूं और खाद की आपूर्ति रूस-यूक्रेन पर निर्भर है। युद्ध लम्बा खिंचने से इन देशों में महंगाई और भुखमरी की स्थिति और बिगड़ेगी। ऊर्जा की कीमतें यदि ऊँची रहती हैं तो ग्लोबल साउथ की अर्थव्यवस्थाओं पर बड़ा बोझ पड़ेगा। IMF के अनुसार, युद्ध की वजह से ऊर्जा आयातक देशों का चालू खाता घाटा औसतन 2.3% तक बढ़ चुका है। ग्लोबल साउथ के लिए सबसे बड़ा खतरा यह है कि अमेरिका और रूस की शक्ति-केंद्रित राजनीति में उनकी आवाज़ और कमजोर हो जाएगी। अलास्का की वार्ता में इन देशों की कोई चर्चा तक नहीं हुई, जबकि यही वो क्षेत्र है जो सबसे अधिक प्रभावित है। भारत और ग्लोबल साउथ इस युद्ध के “अदृश्य शिकार” हैं। उनके लिए यह वार्ता एक चेतावनी है कि बड़ी शक्तियों की राजनीति में उनकी प्राथमिकताएँ गौण हैं। ऐसे में भारत को न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे ग्लोबल साउथ के लिए “विकल्पी कूटनीति” और सामूहिक मंचों (जैसे BRICS, SCO, G20) को मजबूत करना होगा।

-डॉ. शाहिद सिद्दीक़ी; Follow via X  @shahidsiddiqui

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